MAN KI BAAT : शिक्षा क्षेत्र में परिवर्तन की सही राह तभी सम्भव है जब सरकार, समाज और परिवार सभी एक दूसरे पर विश्वास करते हुए इसकी सफलता में......
किसी भी राष्ट्र की प्रगति, परिवर्तन और प्रसन्नता का स्तर वहां के नागरिकों के मध्य समझ, सहयोग, पारस्परिक सम्मान, नवाचार में रुचि तथा मानवीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता के परिमाण पर निर्भर करता है। इसके लिए जरूरी है कि प्रत्येक बच्चे के संपूर्ण व्यक्तित्व विकास का उत्तरदायित्व राष्ट्र तथा समाज स्वीकार कर ईमानदारी से इसका क्रियान्वयन करे। साथ ही प्रत्येक बच्चे को ज्ञान, कौशल, मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों को सीखने तथा जीवन में उतारने के लिए आवश्यक वातावरण, सहयोग, मार्गदर्शन तथा उत्साहवर्धन मिले। अर्थात हर एक बच्चे को प्रशिक्षित, प्रतिबद्ध तथा उत्साही अध्यापक मिलें और उनसे बच्चों को रुचिकर ढंग से सही विद्या और अच्छी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले। नई शिक्षा नीति प्रारूप-2019 यानी कस्तूरीरंगन समिति के प्रतिवेदन में शिक्षकों संबंधी अध्याय में यह सुनिश्चित करना उद्देश्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है कि स्कूल शिक्षा के सभी स्तरों पर सभी विद्यार्थियों का शिक्षण ‘उत्साहित, प्रेरित, उच्च योग्यता प्राप्त, पेशेवर रूप से प्रशिक्षित शिक्षकों’ द्वारा ही हो।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लाना आवश्यक है, मगर उससे भी महत्वपूर्ण है उन लोगों का ‘उत्साहित, प्रेरित और प्रशिक्षित’ होना जिन्हें उसके क्रियान्वयन की जिम्मेदारी सौंपी जानी है। अध्यापकों के संबंध में मानवीय स्तर पर हर सभ्यता में और हर भाषा में जो सवरेत्तम कहा जा सकता है, कहा जा चुका है। भारत में गुरु को ईश्वर के भी पहले स्थान देने की परंपरा रही है। प्रश्न यह है कि व्यवहार में आज स्थिति क्या है? यह तो सर्वत्र माना ही जाता है कि किसी भी देश के लोगों का स्तर वहां के अध्यापकों के स्तर से ऊंचा नहीं हो सकता है। यह वाक्य अपने आप में बहुत कुछ कहता है, ‘किसी भी देश की प्रगति और विकास की गति और गुणवत्ता वहां के अध्यापकों की कार्य-कुशलता और प्रतिबद्धता तथा उनके द्वारा अपने जीवन में उतारे गए मूल्यों से ही निर्धारित होती है।’ गुरु, अध्यापक या आचार्य से एक अपेक्षा तो समाज तथा हर व्यक्ति को होती है कि उनका अपना आचरण अनुकरणीय हो, क्योंकि वे राष्ट्र की भावी पीढ़ी का निर्माण करते हैं, वे ही राष्ट्र निर्माण की संरचना को मजबूती देते हैं, वे ही राष्ट्र निर्माण के आधार स्तंभ हैं।
इस समय भारत के शिक्षक वैश्विक परिदृश्य में कहां हैं? 2012 में जस्टिस जेएस वर्मा आयोग ने अपने प्रतिवेदन में कहा था कि देश में 17,000 से अधिक शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान हैं जिनमें 92 प्रतिशत निजी प्रबंधन के अंतर्गत आते हैं। इनमें से अधिकांश अच्छा प्रशिक्षण देने का प्रयास ही नहीं करते हैं! यहां यह याद करना समीचीन होगा कि पत्रचार द्वारा सरकारी तथा गैर सरकारी विश्वविद्यालयों द्वारा की जा रही शिक्षक प्रशिक्षण की उपाधियों की गिरती गुणवत्ता से चिंतित वरिष्ठ शिक्षाविदों के लगभग बीस वर्ष के अथक प्रयास के पश्चात राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् अधिनियम 1993 संसद में स्वीकृत हुआ। 1998-99 में यह संस्था पूरी तरह क्रियाशील हो गई तथा इसने कम गुणवत्ता वाले अनेक पाठ्यक्रमों को नियमित करने में सफलता पाई। बाद में यह अपने उस स्वरूप को कायम नहीं रख सकी तथा प्रवाह के साथ ही बहने लगी। परिणाम सामने है।
नई शिक्षा नीति ने व्यवस्था के समक्ष यह बड़ी चुनौती प्रस्तुत की है। क्या इसका समाधान संभव है? नियुक्ति की प्रक्रिया बदलकर, प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम बदल कर और सेवा शर्तो को अधिक स्वीकार्य बनाकर किए गए परिवर्तन आशा तो जनित कर सकते हैं, मगर सही क्रियान्वयन का आश्वासन नहीं बन सकते हैं। यदि सही क्रियान्वयन हो तो नई नीति हर बच्चे को शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक विकास के मार्ग पर आगे बढ़ा सकेगी। ये चार तत्व भारत की परंपरागत शिक्षा व्यवस्था की धुरी रहे हैं। नई नीतियां भी इन्हीं चार मुख्य बिंदुओं के इर्द-गिर्द ही बननी होंगी। जो देश यह नहीं समझ सकेगा वह पीछे रह जाएगा। यह भी निर्विवाद है कि सार्थक और सफल परिवर्तन में सबसे महत्वपूर्ण योगदान अध्यापक का होगा। इस समय विश्व में सर्वाधिक प्रतिष्ठा फिनलैंड की शिक्षा व्यवस्था की है। हर कोई फिनलैंड के समकक्ष शैक्षिक उपलब्धियां प्राप्त करना चाहता है, लेकिन फिनलैंड शीर्ष स्थान पर पहुंचा कैसे इस पर चर्चा करने में भी नीति निर्धारक सहज नहीं रह पाते हैं।
दरअसल फिनलैंड की शिक्षा व्यवस्था में बड़ा सुधार शिक्षा की संकल्पना में बदलाव का था। उसने यह माना कि सार्थक परिवर्तन की कुंजी शिक्षक प्रशिक्षण में ही निहित है। 1974 में फिनलैंड ने इस प्रशिक्षण का सारा दायित्व अपने विश्वविद्यालयों में स्थानांतरित कर दिया। 1979 में उसने स्नातकोत्तर उपाधि अनिवार्य कर दी। 2019 में भारत में कस्तूरीरंगन समिति ने ऐसी ही सिफारिशें की हैं। फिनलैंड में प्रतिभावान तथा अध्ययन और अध्यापन में रुचि रखने वाले ही इस व्यवसाय में प्रवेश करते हैं। अध्यापक किसी से कम वेतन नहीं पाते हैं। बच्चे के प्रारंभिक वर्षो में शिक्षक का कार्य अन्य किसी भी आगे के स्तर से अधिक महत्वपूर्ण माना गया। वहां के नेशनल बोर्ड ऑफ एजुकेशन ने मूल पाठ्यक्रम की रूपरेखा 1994 में बनाकर स्कूलों और निकायों को सौंप दी। इसका विशद स्वरूप स्थानीय स्तर पर निर्धारित होता है। यह अध्यापकों पर गहन विश्वास का द्योतक था और उन्होंने अपना उत्तरदायित्व न केवल समझा, बल्कि उसका ‘प्रेरित और उत्साहित’ होकर अनुपालन भी किया।
आज सारा विश्व फिनलैंड के ‘अपने अध्यापकों पर विश्वास’ कर शैक्षिक श्रेष्ठता प्राप्त करने की वास्तविकता को आश्चर्य से देख रहा है। वैसे इस प्रकार के नवाचार की नकल कर पाना भी आसान नहीं है। ऐसे परिवर्तन तभी संभव होते हैं जब सरकार, समाज और परिवार सभी एक-दूसरे पर विश्वास करते हुए इसकी सफलता में जुट जाएं। यदि देश में दशकों तक दस-बारह लाख अध्यापकों के पद रिक्त रहें, लगभग उतने ही अनियमित थोड़े से मानदेय पर गैर-पेशेवर शिक्षक नियुक्त किए जाएं तो फिनलैंड जाकर केवल पर्यटन का आनंद ही लिया जा सकेगा और कुछ नहीं मिलेगा। फिनलैंड में अध्यापकों को निरीक्षकों (जिला शिक्षा अधिकारियों) की चिंता नहीं करनी पड़ती है। उन्हें जिला अधिकारी जब चाहे तब स्कूल से निकल कर किसी भी अन्य गैर शैक्षिक कार्यो में नहीं लगाता है। वहां के अध्यापक साल भर में 600 घंटे अध्यापन करते हैं, जबकि ब्रिटेन में यह 900 घंटे तथा अमेरिका में 1100 घंटे है। क्या हम इसके लिए तैयार हैं?
(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)
जगमोहन सिंह राजपूत
जगमोहन सिंह राजपूत
0 Comments