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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

26,379 स्कूल चल रहे एक कमरे में : नेता-अफसर के बच्चे पढ़ते तो क्या ऐसे ही रहते हालात

26,379 स्कूल चल रहे एक कमरे में : नेता-अफसर के बच्चे पढ़ते तो क्या ऐसे ही रहते हालात

लखनऊ। हाईकोर्ट ने जनप्रतिनिधियों, अफसरों और जजों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने के आदेश दिए हैं। पर, क्या माननीयों और अफसरों के बच्चे इन ‘मजबूरी के स्कूलों’में पढ़ेंगे? सरकारी स्कूलों पर ‘मजबूरी के स्कूल’ का टैग यूं ही नहीं लगा। स्कोर संस्था की एक सर्वे रिपोर्ट में सामने आया था कि सूबे में 26,379 सरकारी स्कूल ऐसे हैं जो एक कमरे में सिमटे हैं। यह आंकड़ा कुल सरकारी स्कूलों का 11 फीसदी है। 10 फीसदी स्कूल दो कमरों तो 10 फीसदी तीन कमरों में चलते हैं। इन स्कूलों में पढ़ाई की क्वालिटी की बात करें तो एक अन्य संस्था ‘असर’ की पिछले साल की सर्वे रिपोर्ट बताती है कि 67 फीसदी कक्षा चार के बच्चे कक्षा दो के हिंदी का पाठ भी नहीं पढ़ पाए। अंग्रेजी, गणित की तो बात ही छोड़िए। ‘मजबूरी के स्कूलों’ में क्या हालात हैं, सर्वे में क्या सामने आया था, पेश है रिपोर्ट....

सिर्फ 9 फीसदी प्राथमिक स्कूलों में पांच से ज्यादा कमरे ः सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 23 फीसदी सरकारी प्राथमिक स्कूल ऐसे हैं जहां पांचवीं तक की पढ़ाई के लिए पांच कक्षाएं हैं। केवल नौ फीसदी स्कूल ऐसे हैं जहां पांच से अधिक कक्षाएं हैं। वहीं 13 प्रतिशत स्कूल ऐसे हैं जहां चार कक्षाएं हैं।

21 फीसदी शिक्षक तो पढ़ाने ही नहीं आते ः सर्वे के दौरान सामने आया कि 21 फीसदी शिक्षक कक्षा में पढ़ाने ही नहीं पहुंच रहे। यही नहीं 6.8 फीसदी शिक्षकों की जगह कोई दूसरा ड्यूटी करते मिला। शिक्षकों का अनुपात (प्राइमरी 30:1 और अपर प्राइमरी 35:1) भी पूरा नहीं मिला। 39 फीसदी प्राइमरी स्कूलों में समस्या का हल निकालने के लिए कोई व्यवस्था ही नहीं मिली। यानी इन स्कूलों में एडमिशन न मिलने, शिक्षक के गैरहाजिर रहनेे, शौचालय नहीं होने जैसी शिकायतों पर कोई सुनवाई की व्यवस्था ही नहीं है।

यूपी में प्राथमिक विद्यालयों की बदहाली की पोल खोलती रिपोर्ट:-

न हिंदी पढ़ पा रहे न अंग्रेजी:-

पढ़ाई की गुणवत्ता सरकारी स्कूलों में खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में क्या है, उस पर ‘असर’ संस्था की वर्ष 2014 की सर्वे रिपोर्ट बेहद भयावह तस्वीर पेश करती है। तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले 91.2 प्रतिशत बच्चे अंग्रेजी का एक वाक्य भी नहीं पढ़ पाते। पांचवीं कक्षा के विद्यार्थियों का भी ऐसा ही हाल रहा। महज 21.1 प्रतिशत बच्चे ही पूरा वाक्य पढ़ पाए वह भी जो बेहद सरल था। कक्षा चार के 67 प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा का हिंदी का पाठ भी नहीं पढ़ पाए। पांचवीं कक्षा के 44.7 प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा की किताब नहीं पढ़ पाए।

सवाल हल करना तो दूर, अंक भी नहीं पहचानते

रिपोर्ट बताती है कि पांचवीं कक्षा के 75 फीसदी बच्चे भाग और 69 फीसदी घटाना के सवाल नहीं कर पाए। 5.6 फीसदी बच्चे तो ऐसे मिले जोकि 0-9 तक के अंकों की भी सही से पहचान नहीं कर पाए। 26.6 फीसदी ही ऐसे बच्चे थे जो कि 100 तक के अंकों की पहचान कर सकते थे। पर, लिखने की बारी आई तो 73.4 फीसदी 99 तक की संख्या भी नहीं लिख पाए। रिपोर्ट बताती है कि पिछले सालों की तुलना में भी पढ़ाई की गुणवत्ता में कोई खास बदलाव नहीं हुआ।

कक्षाएं नहीं तो ‘गोल’ में पढ़ते हैं बच्चे

कक्षाओं की कमी का असर यह है कि बच्चे अपने से जूनियर या सीनियर की क्लास में बैठकर पढ़ रहे हैं। यानी एक ‘गोल’ बन जाते है। सर्वे के दौरान पाया गया कि 63.7 फीसदी स्कूलों में दूसरी कक्षा के बच्चों को अपने से नीचे या ऊपर के स्तर की कक्षा में बिठाया गया था। वहीं चौथी कक्षा के बच्चों का यह आंकड़ा 60.8 फीसदी था। इन बच्चों को अपने साथ के बच्चों की जगह दूसरी कक्षा में बिठाकर पढ़ाया जा रहा था।

... और गुणवत्ता ऐसी!

तीसरी कक्षा के बच्चे अंग्रेजी का एक वाक्य भी नहीं पढ़ पाते

पांचवीं कक्षा के बच्चे भाग के सवाल हल नहीं कर पाते

यह तस्वीर लखनऊ के अमीनाबाद के सरकारी प्राइमरी स्कूल की है। स्कूल के मुख्य गेट के सामने ही कूड़े का अंबार लगा है। बदबू इतनी कि गुजरना तक मुश्किल। पर, इन्हीं राहों से बच्चे स्कूल जाते हैं। उनकी आंखों में उभरी पीड़ा सवाल करती है कि अगर नेताओं-अफसरों के बच्चे यहां पढ़ते तो क्या तब भी हमें देश का भविष्य बनने के लिए इन्हीं राहों से गुजरना पड़ता...?

पांचवीं कक्षा के बच्चे घटाना भी नहीं जानते

चौथी कक्षा के बच्चे दूसरी कक्षा का हिंदी का पाठ भी नहीं पढ़ पाते

यह स्कूल है राजधानी के दौलतगंज का। कहने को तो यहां बच्चे अलग-अलग कक्षाओं में पढ़ते हैं, पर बैठते हैं एक ही जगह। ऐसे हालात में बड़ा सवाल यह है कि बच्चा कैसे पढ़ता होगा या शिक्षक कैसे पढ़ाता होगा।

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