एक बच्चा कक्षा एक में शिक्षा प्रारंभ करता है, जबकि दूसरा प्ले स्कूल, नर्सरी, केजी इत्यादि में तीन साल रहकर वहां आता है- दोनों में किस प्रकार की समानता संभव..........
•नई शिक्षा नीति के विचारणीय बिंदु विश्लेषण
देश की पिछली शिक्षा नीति 1986 में बनी थी जिस पर 1992 में पुनर्विचार हुआ। इधर नई शिक्षा नीति बनने वाली है, ऐसे समाचार लगातार आ रहे हैं। नई शिक्षा नीति बनाने का निर्णय सही दिशा में उठाया गया कदम माना जाना चाहिए। नई नीति बनाने वालों को सबसे पहले वर्तमान परिदृश्य का विश्लेषण कर यह अनुमान लगाने का प्रयास करना होगा कि आज स्कूलों, कॉलेजों तथा विविद्यालयों में पढ़ रही भविष्य की पीढ़ी को किस प्रकार के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, औद्योगिक तथा तकनीकी संदभरे में अपना कार्यकारी योगदान देना होगा। यह तो तय है कि जीवन तथा कार्यक्षेत्र की जटिलताएं लगातार बढ़ती जाएंगी। भौतिकवाद का जादू बड़ी चमक-दमक से लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। मानव मूल्यों का क्षरण हर तरफ हो रहा है। ऐसे में भारत की विश्व-प्रशंसित आध्यात्मिक समझ पीछे न धकेल दी जाए, इसका ध्यान अवश्य रखना होगा। ठीक उसी प्रकार जैसे नई शिक्षा नीति को भारत की विरासत, इतिहास, ज्ञानार्जन परंपरा, सद्-आचरण, पर सेवा जैसे तत्वों को संवारकर और संजोकर नीति तत्वों में शामिल करना होगा। युवाओं की अपेक्षाओं तथा आकांक्षाओं को उचित ढंग से समझना तथा उन्हें पूरा करने के लिए आवश्यक रणनीति बनाना भी जरूरी होगा। लोगों के सामने जो विश्व उभर रहा है उसमें हिंसा, अविास, युद्ध, शोषण, धर्माधता, रूढ़िवादिता इत्यादि को खत्म करने के लिए सम्यक समझ देने का उत्तरदायित्व भी नई शिक्षा नीति को लेना होगा।
"एक बच्चा कक्षा एक में शिक्षा प्रारंभ करता है, जबकि दूसरा प्ले स्कूल, नर्सरी, केजी इत्यादि में तीन साल रहकर वहां आता है- दोनों में किस प्रकार की समानता संभव हो सकती है? यह असमानता उच्च शिक्षा तक बढ़ती जाती है। और जो पिछड़े हैं, जिन्हें शिक्षा की औरों से अधिक जरूरत है, वे और पिछड़ते जाते हैंअंतत: नई शिक्षा नीति का सूत्र वाक्य तो एक ही हो सकता है- चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा। वह ऐसी पीढ़ी तैयार करने की संकल्पना को साकार करे जो भारतीय संस्कृति तथा ज्ञानार्जन परंपरा को जाने-समझे और उसे आगे बढ़ाए |"
नई शिक्षा नीति को इस चुनौती को स्वीकार करना होगा कि अभी तक सारी योजनाओं, घोषणाओं तथा प्रयासों के बावजूद 14 साल तक के हर बच्चे को उचित तथा उपयुक्त स्तर की शिक्षा उपलब्ध नहीं हो पाई है। केवल 30-35 प्रतिशत बच्चों को ही अपेक्षित स्तर की शिक्षा मिल रही है; बाकी को नाममात्र तथा अनुपयोगी। वे कौन-सी नीतिगत कमियां रही हैं जिसके कारण अधिकांश सरकारी स्कूलों की साख अपने निम्नतम स्तर पर पहुंच गई हैं? भारत को आर्थिक विकास चाहिए, संपदा चाहिए; मगर क्या वह अपने आधे से अधिक बच्चों को अपनी प्रतिभा को पूर्ण विकसित होने का अवसर दिए बिना अपनी बौद्धिक संपदा को बचा पाएगा? यह विचार अब बड़ी दृढ़ता से उभर रहा है कि हाथ से काम करना, हस्त कौशल सिखाना और कामगारों-मजदूरों-किसानों के काम के प्रति सम्मान पैदा करना समाज, शिक्षा, स्कूल, उद्योग की सम्मिलित जिम्मेवारी है। इसे नीतिगत स्तर पर पुष्ट करना पड़ेगा। स्कूल शिक्षा में जो प्रश्न तेजी से उभर रहा है और आगे भी बना रहेगा वह है- हर बच्चे को शिक्षा प्राप्त करने में समानता का अवसर देना।
वास्तव में हो ठीक इसका उल्टा रहा है। सरकारी स्कूल अब उन लोगों की पसंद नहीं बचे हैं जो मोटी फीस देकर निजी ‘‘पब्लिक स्कूलों’ में अपने बच्चों को प्रयत्नपूर्वक प्रवेश दिला पाते हैं। इसमें नीति निर्धारकों से लेकर सरकारी प्राइमरी स्कूल के अध्यापक स्तर तक के व्यक्ति आते हैं। राष्ट्र के साथ वायदा तो समान स्कूल व्यवस्था- पड़ोसवाला स्कूल- का था। अब उसकी चिंता नई शिक्षा नीति कैसे करेगी, उसे नई नीति में खोजने का प्रयास सभी करेंगे। 1986 के नीतिगत दस्तावेज में सभी को ‘‘कंपरेबल क्वालिटी’ की शिक्षा देने की बात कही गई थी तथा कहा गया था कि स्थान, जाति, लिंग इत्यादि के अंतर को इसमें बाधा नहीं बनने दिया जाएगा। वास्तव में अंतर घटा नहीं, बल्कि बढ़ा ही है। एक बच्चा कक्षा एक में शिक्षा प्रारंभ करता है, जबकि दूसरा प्ले स्कूल, नर्सरी, केजी इत्यादि में तीन साल रहकर वहां आता है- दोनों में किस प्रकार की समानता संभव हो सकती है? यह असमानता उच्च शिक्षा तक बढ़ती जाती है। और जो पिछड़े हैं, जिन्हें शिक्षा की औरों से अधिक जरूरत है, वे और पिछड़ते जाते हैं। इस चुनौती का परिमाण लगातार बढ़ता जा रहा है। शिक्षा की लगातार गिरती जा रही गुणवत्ता को ऊपर उठाने के लिए नई सोच चाहिए।व्यवस्था के बाद बात आती है विषय-वस्तु की। इस समय संचार तकनीक का प्रभाव शिक्षा पर तेजी से पड़ रहा है और बढ़ रहा है।
मगर आगे की शिक्षा नीति को प्रभावाली ढंग से यह कहना होगा कि भारत की शिक्षा की जड़ें गहराई तक भारत की मिट्टी में जानी चाहिए। हम कब तक पश्चिम के विचारकों, मनोवैज्ञानिकों तथा शिक्षाविदों के अनुसार ही चलते रहेंगे? भारत की ज्ञानार्जन की अपनी सशक्त परंपरा रही है और इसका लोहा विश्व ने माना है। गांधी, विवेकानंद, टैगोर, श्री अरविंदो जैसे मनीषियों ने शिक्षा की भारतीय अवधारणा को आधुनिक संदर्भ में सशक्त करने के प्रयास किए हैं। आज हमारे बच्चे ही नहीं, अध्यापक भी इनके चिंतन से पूरी तरह परिचित नहीं हो पा रहे हैं। नियंतण्रता कोई भी स्वरूप ले, राष्ट्रीयता का महत्व कम नहीं होने वाला है। शिक्षा नीति को यह निरूपित करना होगा कि राष्ट्र प्रेम तथा राष्ट्र गौरव के तत्वों को कहीं गौड़ स्थान तो नहीं दिया जा रहा है। कुल मिलाकर शिक्षा नीति को यह भी देखना होगा कि ‘‘मस्तिष्क, हाथ, ह्रदय’ -हेड, हैंड, हार्ट- तीनों अवयवों का समग्र विकास लगातार समेकित ढंग से होता रहे। केवल लिखित बोर्ड परीक्षा तक सीमित न रह जाए हमारी शिक्षा। स्कूल शिक्षा की गुणवत्ता ही निर्धारित करती है उच्च शिक्षा के शोध तथा नवाचार की गुणवत्ता। ‘‘
नई नीति का महत्वपूर्ण भाग होना चाहिए अध्यापक शिक्षा और प्रशिक्षण। भारत की शिक्षा नीति में अध्यापक शिक्षा के अंर्तगत 1986-92 में कहा गया था कि किसी भी देश के लोगों का स्तर उनके अध्यापकों के स्तर से ऊंचा नहीं हो सकता है। लेकिन हमारी अध्यापक-प्रशिक्षण की नीतियां, विषयवस्तु तथा विधियां अनेक पक्षों में कमजोर साबित हुई हैं। दूसरा पहलू यह है कि व्यवस्था तथा सरकारों ने अध्यापकों के प्रशिक्षण तथा नियुक्तियों को वह महत्व दिया ही नहीं जिसकी जरूरत थी। आज अनेक राज्यों में लाखों की संख्या में कम मानदेय पर अनियमित अध्यापक नियुक्त होते जा रहे हैं। बिहार में नियमित अध्यापक के सेवानिवृत्त होते ही पद समाप्त हो जाता है।
आज स्कूलों से लेकर विविद्यालयों तक अध्यापकों तथा प्राध्यापकों की चिंताजनक स्थिति तक कमी है। इससे हर स्तर पर गुणवत्ता प्रभावित होती है। इस स्थिति से देश को उबरना होगा और अपेक्षा तो यही है कि नई शिक्षा नीति कुछ ऐसे रास्ते सुझाएगी जो अध्यापकों के प्रशिक्षण संस्थानों का माहौल बदल दे, अध्यापकों को संपूर्ण प्रशिक्षण मिले तथा उन्हें काम करने की ऐसी स्थितियां मिलें जहां वे न केवल बच्चों का सर्वागीण विकास कर सकें, वरन् स्वयं भी अपनी समझ, कौशल तथा कर्मठता लगातार बढ़ा सकें। अध्यापक जब यह अंतर्निहित कर लें कि वे बच्चों के लिए आदर्श -रोल माडल- हैं तथा वे नई पीढ़ी के निर्माण में ही नहीं बल्कि देश के विकास में भागीदार है, तब शिक्षा अपेक्षित गतिशीलता अवश्य प्राप्त कर लेगी।
अंतत: नई शिक्षा नीति का सूत्र वाक्य तो एक ही हो सकता है- चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा। वह ऐसी पीढ़ी तैयार करने की संकल्पना को साकार करे जो भारतीय संस्कृति तथा ज्ञानार्जन परंपरा को जाने-समझे और उसे आगे बढ़ाए। वह स्वामी विवेकानंद के ‘‘मैन-मेकिंग एजुकेशन’ की अवधारणा को साकार करने में समर्थ हो। रास्ता आसान नहीं है, मगर दृढ़ निश्चय के साथ लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है। दूसरा कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है।
-जे एस राजपूत (लेखक प्रख्यात शिक्षाविद हैं)
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