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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

MAN KI BAAT : कोरोना-काल में जहां एक ओर लोग अपनी जिंदगी पटरी पर लाने की योजना बना रहे हैं, तो वहीं दूसरी ओर, यह चिंता उन्हें दुबला कर रही है कि अगर हालात पूरी तरह से दुरुस्त नहीं हुए, तो आने वाले दिनों में अपने आंख के तारों को वे स्कूल-कॉलेज कैसे.......

MAN KI BAAT : कोरोना-काल में जहां एक ओर लोग अपनी जिंदगी पटरी पर लाने की योजना बना रहे हैं, तो वहीं दूसरी ओर, यह चिंता उन्हें दुबला कर रही है कि अगर हालात पूरी तरह से दुरुस्त नहीं हुए, तो आने वाले दिनों में अपने आंख के तारों को वे स्कूल-कॉलेज कैसे.......


  कोरोना से करवट बदलती शिक्षा 

आलोक जोशी, वरिष्ठ पत्रकार

आगे जिंदगी कैसे चलेगी? यह आज की सबसे बड़ी चिंता है, जो बाकी हर चिंता पर हावी हो गई है। कोरोना-काल में जहां एक ओर लोग अपनी जिंदगी पटरी पर लाने की योजना बना रहे हैं, तो वहीं दूसरी ओर, यह चिंता उन्हें दुबला कर रही है कि अगर हालात पूरी तरह से दुरुस्त नहीं हुए, तो आने वाले दिनों में अपने आंख के तारों को वे स्कूल-कॉलेज कैसे भेजेंगे? 
ऑनलाइन पढ़ाई कराने वाली एक बड़ी संस्था ने भारत के छोटे-बडे़ शहरों में करीब पांच हजार छात्रों के माता-पिता के बीच सर्वे किया है, जिसमें पता चला कि उनमें से 85 प्रतिशत को चिंता सता रही है कि कोरोना के चक्कर में उनके बच्चों का भविष्य बिगड़ रहा है। बच्चे जिंदगी की दौड़ में कहीं पिछड़ न जाएं और कहीं उनका साल खराब न हो जाए। जाहिर है, सरकारों को भी इस चिंता की खबर है। इसीलिए सीबीएसई व आईसीएसई की बची हुई परीक्षाएं रद्द कर दी गई हैं। यह ऐलान भी आ गया है कि कॉलेजों और प्रोफेशनल कोर्सेज में भी फाइनल एग्जाम नहीं होंगे। 
लेकिन अभी उन बच्चों और उनके मां-बाप की मुसीबत नहीं टली है, जो करियर की अहम दहलीज पर खडे़ हैं। जिन्हें उसी स्कूल या कॉलेज में अगली क्लास तक का नहीं, बल्कि जिंदगी के अगले मुकाम तक का सफर तय करना है। जो इंजीनियरिंग, मेडिकल, लॉ, मैनेजमेंट या किसी प्रतियोगिता की तैयारी में जुटे हैं और जो देश-दुनिया के नामी-गिरामी शिक्षण संस्थानों में प्रवेश की कसरत में जुटे हैं।
नामी-गिरामी से याद आया, अभी पिछले दिनों देश के शिक्षण संस्थानों की रैंकिंग आई थी, जिसकी चर्चा पढ़ने-लिखने वाले परिवारों में जारी है। हालांकि, करीब 5,500 संस्थानों ने ही उस रैंकिंग में शामिल होने के लिए आवेदन किया था, जबकि हमारे देश में 45 हजार डिग्री कॉलेज, 1,000 से ज्यादा विश्वविद्यालय और 1,500 अन्य उच्च शिक्षण संस्थान हैं। मतलब, भारत में शिक्षण का एक बड़ा हिस्सा रैंकिंग से बाहर है। इसके बावजूद इस राष्ट्रीय रैंकिंग में आप अच्छे शिक्षण संस्थानों के नाम देख सकते हैं। सबसे अच्छे कॉलेज, अच्छी यूनिवर्सिटी, इंजीनियरिंग-मेडिकल कॉलेज, फार्मेसी, लॉ, आर्किटेक्चर, मैनेजमेंट और डेंटल कॉलेज भी देख सकते हैं। हालांकि यह देखने की कोई व्यवस्था नजर नहीं आई कि हिंदी, अंग्रेजी, दूसरी भाषाओं, साहित्य, कला, समाजशास्त्र, राजनीति, मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र और इतिहास की पढ़ाई के लिहाज से सबसे अच्छे संस्थान कौन से हैं? यह बात आश्चर्यजनक इसलिए भी है कि गलत इतिहास पढ़ाए जाने की बात होती रही है। 
यहां यह देखना भी जरूरी है कि जब हम भारत को विश्वगुरु बनाने के अभियान में लगे हैं, तब दुनिया की यूनिवर्सिटी रैंकिंग क्या दिखा रही है। टाइम्स  अखबार की रैंकिंग को सबसे वजनी माना जाता है। उस रैंकिंग में आप दुनिया, देश और विषय के हिसाब से भी चयन कर सकते हैं। उस रैंकिंग में सबसे ऊपर इंग्लैंड की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी है और उसमें एक के बाद एक अमेरिका, इंग्लैंड के ही नाम दिखते हैं। बीच में कहीं कनाडा भी है। भारत का जो पहला नाम इस सूची में आता है, वह 300 के बाद है। 300 से 350 की सूची में आता है इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, पर इसके ठीक नीचे भारत का ही दूसरा इंस्टीट्यूट है, आईआईटी, रोपड़। हालांकि यह आईआईटी भारत की सरकारी रैंकिंग में 39वें नंबर पर है, जबकि टाइम्स  की सूची में यह देश का दूसरा सबसे प्रतिष्ठित संस्थान है।  
रैंकिंग की इस कथा में जाने की वजह सिर्फ यह बताना है कि जहां भारत के लाखों बच्चे अच्छी रैंकिंग वाले संस्थानों में भर्ती के लिए जी जान लगाए रहते हैं, वहीं दुनिया की नजर में ये कोई महान संस्थान नहीं हैं। अच्छे और धन से सक्षम विद्यार्थी टॉप संस्थानों को चुनने की कोशिश करते हैं। भारत में विद्यार्थियों का एक बड़ा वर्ग है, जो पढ़ने विदेश जाता रहा है। इस वर्ग के सपनों पर कोरोना की सर्वाधिक मार पड़ी है। ध्यान रहे, वर्ष 2018 में भारत से 7.50 लाख से ज्यादा विद्यार्थी विदेश पढ़ने गए थे। अब न सिर्फ अमीर, बल्कि मध्यवर्गीय परिवार भी बारहवीं बाद अपने बच्चों को विदेश भेजने लगे हैं। एक तो वे यहां एडमिशन की गलाकाट होड़ से बच जाते हैं और दूसरी, अमेरिका की पढ़ाई में वैसी वर्ण-व्यवस्था नहीं चलती, जैसी भारत में है। यानी साइंस सबसे ऊपर, कॉमर्स बीच में और आट्र्स सबसे नीचे। आट्र्स वाला साइंस में नहीं जा सकता। अमेरिकी संस्थानों में आप बीच में भी विषय बदल सकते हैं। भारतीय संस्थानों को भी यह सुविधा देनी चाहिए। कोरोना के समय बहुत लोग अपना विषय बदलना चाहेंगे।
जहां कोरोना के इस समय में पढ़ाई और उसके विषय प्रभावित होंगे, वहीं एक बड़ा असर प्रवेश व अन्य शुल्कों पर भी पडे़गा। भारत के कुछ टॉप या निजी संस्थानों में औसतन अलग-अलग कोर्स के लिए वर्ष में दो लाख से आठ लाख रुपये तक देने पड़ते हैं। वहीं अमेरिका में पढ़ाई का खर्च साल में पच्चीस-तीस लाख रुपये से कम नहीं पड़ता। फिर भी लोग हिम्मत जुटाते हैं, इसकी एक वजह बैंकों से कर्ज मिलना भी है, अब तो बैंकों को भी नए सिरे से सोचना होगा। अनेक बाधाएं खड़ी हो गई हैं। 
अब हर इंसान खर्च करने से पहले भी दस बार सोच रहा है। बच्चों को भी लग रहा है कि इतना खर्च करके पढ़ाई कर लें, पर अर्थव्यवस्थाओं का जो हाल है, उसमें नौकरी का ठिकाना नहीं है। यह देश और दुनिया में स्कूल-कॉलेज चलाने वालों और उनकी सरकारों के लिए बड़ा सिरदर्द बन चुका है। अमेरिका, इंग्लैंड व ऑस्ट्रेलिया की तमाम यूनिवर्सिटी डर रही हैं कि विदेश से आने वाले छात्रों की संख्या बुरी तरह गिरेगी। विदेश में पढ़ने की इच्छा रखने वालों को लुभाने के लिए अनेक योजनाएं आ रही हैं। फीस माफ की जा रही है। ऑनलाइन क्लास शुरू करने की तैयारी है। एडमिशन एक साल के लिए होल्ड पर रखने का भी ऑफर है। आंकड़े साफ नहीं हैं, पर दुनिया में शिक्षा का बाजार सिमट रहा है।
विदेश जाने की तैयारी में अटक गए बच्चों को ध्यान में रखकर ही सरकार ने आईआईटी जेईई का रजिस्ट्रेशन दोबारा खोला था, ताकि जिनका मन बदल रहा हो, वे आवेदन कर सकें। करीब 15 हजार नई अर्जियां आई भी हैं, लेकिन यह दुविधाओं का अंत नहीं। अभी तक सरकार इस पर अड़ी हुई है कि जेईई और नीट की परीक्षाएं नहीं टाली जाएंगी।  यानी जो छात्र विदेश जाएंगे और जो विदेश जाने की नहीं सोच रहे, उन सबके सामने अनिश्चितताओं और सवालों का पूरा पहाड़ खड़ा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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