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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

MAN KI BAAT : हाय ! रे बस्ता दिया तुने दबा-कुचला बचपन बस्ते पर जब चर्चा होती है तो यह भी जानना जरूरी है कि स्कूल के बाद ट्यूशन, होमवर्क, ऐसे-ऐसे प्रोजेक्ट जो बच्चों से तो क्या मां-बाप से भी न बनें और न जाने क्या-क्या? उस पर भी हमने उन्हें गिल्ली-डंडा, गुच्ची, चोर सिपाही, पिट्ठू लदान, कुश्ती, कब्बड़ी, खो-खो, फुटबाल, बालीबाल, हाकी, लट्टू, कैरम के स्थान पर वीडियो गेम पकड़ा.......

MAN KI BAAT : हाय ! रे बस्ता दिया तुने दबा-कुचला बचपन बस्ते पर जब चर्चा होती है तो यह भी जानना जरूरी है कि स्कूल के बाद ट्यूशन, होमवर्क, ऐसे-ऐसे प्रोजेक्ट जो बच्चों से तो क्या मां-बाप से भी न बनें और न जाने क्या-क्या? उस पर भी हमने उन्हें गिल्ली-डंडा, गुच्ची, चोर सिपाही, पिट्ठू लदान, कुश्ती, कब्बड़ी, खो-खो, फुटबाल, बालीबाल, हाकी, लट्टू, कैरम के स्थान पर वीडियो गेम पकड़ा.......

बचपन एक ऐसी उम्र होती है, जब हम तनाव से मुक्त होकर मस्ती से जीते हैं। नन्हें गुलाबी होंठों पर बिखरती फूलों सी हंसी, मुस्कुराहट। बच्चों की शरारत, रूठना, जिद करना, अड़ जाना ही बचपन है, लेकिन अपने दिल पर हाथ रखकर हमें बताना चाहिए कि क्या हमारे बच्चों को ऐसा वातावरण मिल रहा है? क्या यह सत्य नहीं कि उनका बचपन तनाव की काली छाया से कलुषित हो रहा है? क्या आप इस बात से इंकार कर सकते हैं कि हर सुबह स्कूल जाने से बचने के लिए वे पेट दर्द से लेकर सिरदर्द तक के अनेक बहाने नहीं बनाते हैं और क्या वे मुस्कुराते हुए भारी बस्ता टांगे खचाखच भरी स्कूल बस पर सवार होते हैं? क्या उनके नन्हे चेहरों पर उदासी व तनाव नहीं होता?

स्कूल के बाद ट्यूशन, होमवर्क, ऐसे-ऐसे प्रोजेक्ट जो उन बच्चों से तो क्या उनके मां-बाप से भी न बनें और न जाने क्या-क्या? उस पर भी हमने उन्हें गिल्ली-डंडा, पिट्ठू, कुश्ती, कब्बड़ी, खो-खो, फुटबाल, वालीवाल, हाकी लट्टू, कैरम के स्थान पर वीडियो गेम पकड़ा दिया है। रही सही कसर टीवी, मोबाइल इंटरनेट पूरी कर रहे है। इस पर भी हम सामान्य बच्चों को अपेक्षाकृत अधिक चिड़चिड़ा, गुस्सैल प्रवृत्ति को उन्हें कोल्डड्रिंक, पिज्जा, बर्गर, पासता, चाउमिन खिलाकर शांत करने की भूल करते है, लेकिन भारी बस्ते के बोझ तले कराहते उसके बचपन की दूसरों से तुलना कर उसे हीन बताने का अपराध भी करते हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि केवल प्राथमिक कक्षाओं का ही नहीं बल्कि माध्यमिक स्तर के छात्रों का बस्ता काफी भारी है। यह समस्या 1990 से संसद से सड़क तक उठायी जाती रही है। प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में एक समिति बनी। 1993 में प्रस्तुत उसकी रिपोर्ट पर आगे बढ़ना था लेकिन 'मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की'। पाठ्यक्रम बनाने वालों ने हर बार कुछ नया जोड़ने के नाम पर पुस्तकों को बढ़ाया ही है।

राज्यों ने भी बस्ते का बोझ कम करने की कोशिश की कुछ राज्य सरकारों ने भी बच्चों के बस्तों के बोझ को हल्का करने के लिए अच्छी पहल शुरू की है-

🔵 तमिलनाडू सरकार ने कक्षा एक से आठवीं तक के लिए ट्राइमेस्टर सिस्टम की शुरुआत की है, जिसके तहत हर टर्म में अलग-अलग विषय ही पढ़ाए जाते हैं।

🔴 महाराष्ट्र सरकार ने अपने 50,000 स्कूलों को पूरी तरह डिजिटल करने का बीड़ा उठाया है, जहां पढ़ाई जाने वाली हर चीज ऑनलाइन होगी । इतना ही नहीं आरटीई कानून 2009 के तहत स्कूलों में ही स्वच्छ पानी मुहैया कराने की बात भी कही गई है ताकि बच्चों को पानी की बोतल स्कूल में ले जाने की जरूरत न पड़े।

निजी स्कूल की एक शिक्षिका ने बताया कि 'अपने लाभ के लिए हमारे जैसे सभी स्कूल एक ही विषय की अनेक पुस्तकें, अभ्यास पुस्तिका उन्हें वर्ष के आरम्भ में देकर मोटी रकम बना लेते हैं जबकि अनेक बार तो कुछ पुस्तकें खोले बिना ही पूरा वर्ष बीत जाता है। बस्ते का बोझ घटाने की प्रथम शर्त स्कूल प्रबंधन द्वारा पुस्तकें बेचने पर प्रतिबंध लगाना होना चाहिए । व्यवहारिक शिक्षा दी जानी चाहिये।

इधर जिस तरह से ई- शिक्षा का प्रचलन बढ़ा है उसके बावजूद भारी बस्ते की अवधारणा पूर्ण व्यवसायिकता के कारण शेष है। इसके लिए किसी विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट की नहीं, मात्र व्यवहारिक बुद्धि की जरूरत है।' प्रतियोगिता के बढ़ते दौर तथा निजी स्कूलों के तेजी से प्रचार-प्रसार और लोकप्रियता ने इस समस्या को विस्तार ही प्रदान किया है। अनन्त प्रतियोगिताओं की तैयारी के लिए हर विषय की कई-कई पुस्तकें खरीदने के लिए प्रेरित करने की परम्परा भी बलवती हो रही है। ऐसा क्यों है, सभी जानते हैं। प्रकाशक के अनेक तरह के आकर्षण, यथा कमीशन पेकैज, अपना काम करते हैं। वैसे कुछ विशेषज्ञ बोझ को बस्ते अथवा पुस्तक के वजन से नहीं 'समझ' से जोड़ते हैं। माध्यमिक कक्षाओं के बाद उच्च शिक्षा में प्रवेश की तैयारी के नाम पर देश भर में फैल रहे कोचिंग संस्थान लाखों की फीस लेकर बोझ को बस्ते में मन-मस्तिष्क तक पहुंचाने में अपना योगदान कर रहेे हैं।

वैसे यह समस्या केवल भारत की नहीं है, दुनियां के अनेक देशों ने बस्ते का बोझ कम करने में सफलता भी प्राप्त की है, लेकिन इसके तरीके निकाले गए हैं। वहां बच्चे की रुचि और प्रतिभा के अनुसार विषय में आगे बढ़ाया जाता है। अनावश्यक बोझ का कोई प्रश्न ही नहीं होता। हमारे यहां बड़ी-बड़ी बातें तो हुई लेकिन समय के साथ शिक्षा में जो गुणात्मक सुधार होना चाहिए था, वह नहीं हुआ।

इसलिए मैनें बस्ते के वजन को लेकर जानकारी जुटाई और आखिर में पाया कि पूरे मामले में लापरवाही स्कूलों की ही है । सरकार ने तो समय-समय पर इस बारे में गाइडलाइन जारी की हैं ।

    "संसद में ही केन्द्रीय शिक्षा राज्य मंत्री ने बताया था सरकार खुद भी इस बात को लेकर चिंतित है । इस लिए एनसीआरटी ने ताजा फरमान जारी किया है कि कक्षा दो तक के लिए दो किताबें ( लैंग्वेज और मैथ्स) और कक्षा पांच तक के लिए तीन किताबें (लैंगवेज, एनवायरमेंटल स्टडी और मैथ्स) ही स्कूल रखे । साथ ही एनसीआरटी ने सभी किताबें ई-पाठशाला की बेवसाइट पर भी उपलब्ध करा रखी है ताकि छात्रों को स्कूलों में हर विषय की किताब ले जाने की परेशानी से छुटकारा मिल सके ।"

किताबी कीड़ा बनकर अथवा रट्टा लगाकर ज्ञान प्राप्त करने की गलत परम्परा के स्थान पर व्यावहारिक ज्ञान देकर बस्ते का बोझ कम किया जा सकता है। नयी शिक्षा नीति के प्रारूप में भी इसपर बहुत ध्यान नहीं दिया गया, अत: बहुत आशा करना व्यर्थ है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि ऐसा हो ही नहीं सकता। पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के बालोद के जिलाधीश ने अपने जिले के 50 स्कूलों के पहली से पांचवीं तक के हजारों बच्चों को बस्तेे से मुक्त करा दिया है। अब वहां के बच्चे बिना बस्ता लिए हंसते-खेलते स्कूल जाते हैं।

यह विडम्बना ही है कि शरीर से कमजोर, मस्तिष्क से कोमल बच्चे भारी भरकम बस्ते लिए स्कूल जाते हैं लेकिन कालेज जाते हुए वेे लगभग खाली हाथ या डायरी लिए होते है। यह भी विचारणीय है कि लोगों में पढ़ाई के बाद पुस्तकें पढ़ने में घटती रूचि का कारण कहीं बचपन के भारी बस्ते की दहशत का परिणाम तो नहीं। अनावश्यक पुस्तकों पर लगाम लगाने की जरूरत है लेकिन यह समीक्षा हड़बड़ाहट से नहीं, वैज्ञानिक ढंग से होनी चाहिए।

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