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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

मन की बात : विद्यालयों में घटती छात्र संख्या पर भाई अवनींद्र सिंह जादौन के विचार

ग्रामीण परिवेश के लोगों को शिक्षा देना और उन्हें शिक्षा लेने के तैयार करना शाब्दिक रूप से जितना सरल प्रतीत होता है व्यवहारिक रूप से उतना ही दुष्कर कार्य है। आंकड़े बताते हैं कि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में छात्रों का नामांकन लगातार घट रहा है और बेसिक शिक्षा विभाग लाख कोशिश के बाबजूद नामांकन बढ़ाने में असफल रहा है।  अगर कुल नामांकन पर गौर करें तो आप पाएंगे कि छात्र संख्या सरकारी विद्यालय से निजी विद्यालय की तरफ शिफ्ट हो रही है और यह भारत के समृद्ध होने का प्रतीक है।

        ग्रामीण जीवन उतना आसान नहीं होता है जितना शहर में रहने बाला व्यक्ति कल्पना करता है। वर्तमान में केवल वो ही परिवारगांव में रहने को मजबूर हैं जिनकी आर्थिकस्थिति बहुत कमजोर है, शेष सभी व्यक्तिगांव से नजदीक के कस्बे या शहर में पलायनकर चुके हैं या निकट भविष्य में करने के लिएयोजना बना रहे हैं। ज्यादातर ग्रामीण लोगों का सपना ही आर्थिक मजबूती प्राप्त करगांव से शहर बसना होता है।

अगर गांव में रहने बाले लोगों से बात करें तो पता चलता है कि गांव में रहने बाले 90 प्रतिशत से अधिक परिवार वहां मज़बूरी में ही रह रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्र में निवास करने बाले परिवारों में भी दो वर्ग है एक वो जिनके पास पैतृक जमीन है और दूसरे वो जो भूमिहीन मजदूर वर्ग के हैं। जमीन बाले किसान की गिनती उस गांव के समृद्ध लोगों में होती है और ऐसे समृद्ध लोग अपने पाल्यों को सरकारी स्कूल में पढ़ाना तौहीन मानते हैं इसलिए इनके बच्चे आसपास स्थित मान्यता प्राप्त विद्यालयों में अध्यनरत हैं जबकि मजदूर वर्ग के बच्चे आर्थिक रूप से कमजोर होने से सरकारी विद्यालय में ही पढ़ने को मजबूर हैं।

      गांव में रहने बाले कमजोर और वंचितवर्ग का जीवन बहुत ही कठिन है ज्यादातरपरिवारों में बच्चों की संख्या काफी अधिक है जिनके पालन पोषण के लिए माता औरपिता के साथ उनके किशोर बच्चों को भीकाम पर लगना पड़ता है। ज्यादातर परिवारमें सभी सदस्य मजदूरी कर के भी वर्ष भरकी गुजर लायक नहीं कमा पाते है। पूरेपरिवार के मजदूरी करने के कारण शेष छोटे बच्चों को अपने से छोटे बच्चों की देखभालके लिए घर पर ही रुकना पड़ता है ऐसे में उनबच्चों को स्कूल लाना और स्कूल कीदहलीज़ के भीतर रोककर रखना एक चुनौती भरा काम है।

       अगर आपको कभी ग्रामीण बंचित और कमजोर तबके के लोगों के घरों में जाने का अवसर मिले तो उनके घरों को देखकर आप उनके जीवन स्तर का सहज अनुमान लगा सकते हैं। छोटे छोटे मिट्टी से लिपे कच्चे दो तीन कमरों में 12 से 15 व्यक्ति कैसे रहते होंगे ये आप स्वयं प्रत्यक्ष देखे बिना कभी कल्पना भी नहीं कर पायेगे। अधिकांश बंचित वर्ग के परिवार गांव के समृद्ध लोगों में उपेक्षा का शिकार हैं गांव के लोग इन परिवारों के व्यक्ति और उनके बच्चों के लिए बहुत ही निम्नस्तरीय भाषा का प्रयोग करते मिलते हैं। परिवारों का जीवन स्तर देखकर ऐसा लगता है कि हम अभी भी 18 वीं सदी में ही हैं, थोड़े से बर्तन, मिटटी का चूल्हा थोड़े से कपड़ों का एक संदूक ,हाँथ से बुनी चारपाई देखकर एक बार पुनः हम यह सोचने को मजबूर हो जाते है कि क्या ये लोग भी 21 वीं सदी के हमारे उन्नत समाज का हिस्सा हैं?  कई बार आपको गांव की बारात में कई बच्चे सरकारी यूनिफार्म में ही नजर आते हैं क्योंकि उनके पास पहनने को इससे अच्छा परिधान नहीं है। जाड़े के समय एक शर्ट या एक पुराने स्वेटर में ही ये 3-4 महीने गुजारने को मजबूर होते हैं।
     

         फसल बोने और काटनें  का समयप्राइमरी स्कूलों के लिए बड़ा मुश्किल भरासमय होता है वर्तमान समय में गाँव की कुलखेती के हिसाब से मजदूरों की संख्या काफीकम हो गयी है ज्यादातर लोग काम औररोजी रोटी की तलाश में शहर पलायन करचुके हैं और शिक्षित नवयुवा खेती में रूचि नहीं ले रहे है। फसल की बुबाई और कटाईके समय खेतों पर काम करने बाले बच्चों कोएक दिन मजदूरी के बदले  150 से 200रुपये तक मिल जाते हैं इस तरह पूरा परिवारएक दिन में 1000 -1200 रुपया कमा लेता है और 2 महीने में लगभग 50000 रुपयातक कमाता है । गरीब परिवार के लिए ये पूरेवर्ष के भरण पोषण के लिए पर्याप्त कमाईहै। ऐसे में अपने बच्चों से काम करवाना इनकी मज़बूरी है और यह मज़बूरी बच्चों कीपढाई पर हमेशा भारी पड़ती है।

             ग्रामीण बच्चों के लिए खेती के महीने पिकनिक टाइम जैसा है। मजदूरी कर बचाए गए पैसों से उनकी कई छोटी छोटी ख्वाहिश पूरी हो जाती हैं सो मास्टर जी की नियमित स्कूल आने की सलाह उन्हें नागवार गुजरती है। दो महीने स्कूल से गायब रहने बाले इन बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा में शामिल करना अध्यापकों के लिए एक कठिन चुनौती है साथ ही शिक्षा विभाग की मंसा के अनुरूप पाठयक्रम पूर्ण कराना भी लगभग असंभव कार्य है।

             कुछ छोटे बच्चे जो मजदूरी का कार्यकरने लायक नहीं होते हैं पर उनके माँ बापऔर बड़े भाई बहनों के खेतों पर चले जाने के कारण घर के दुधमुँहा बच्चों के देखरेखकी जिम्मेदारी इन पर  जाती है ।अगरआप कभी गांव की गरीब बस्ती में जाए तो7-8 वर्ष वय के बच्चे अपने 1-2 वर्ष के बच्चों को गोद में लिए घूमते मिल जायेगें।

              ग्रामीण क्षेत्र के छात्रों की दिनचर्या भी काफी अलग है माता पिता के कामकाजी होने के कारण घर के कामकाज और खाना बनाने की जिम्मेदारी किशोर उम्र की छात्राओं की ही होती है उच्च प्राथमिक विद्यालयों की छात्राओं से बात करने पर पता चलता है कि ज्यादातर छात्राएं अपने घरों पर भोजन बनाकर स्कूल आतीं है क्योंकि उनके माता पिता खेतों पर जा चुके होते हैं वही किशोर उम्र के लड़के पालतू जानवरों के साथ पिता की सहायता करते हैं। ग्रामीण क्षेत्र में गरीब बंचित परिवार के धंधे और कामकाज भी अलग तरह के हैं। गांव में रहने बाले गरीब परिवारों में अधिकांश खेती में मजदूरी के अलावा लकड़ी बीनकर बाजार बेचना,दूसरों के जानवर चराना, रेहड़ी और ढेला लगाना,रिक्शा चलाना, शहरी घरों में नौकर का काम इत्यादि करते हैं निम्न जीवन स्तर और छोटे काम धंधो का सीधा प्रभाव इनके खानपान,पारिवारिक जीवन और सामाजिक जीवन पर देखा जा सकता है और यह स्तर बच्चों की नियमित शिक्षा को भी प्रभावित करता है।

             हालाँकि गांव में रहने बाले बंचित वर्ग के अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं और बच्चे भी पढ़ना चाहते हैं पर इन लोगों का निम्नतम जीवन स्तर इसमें बाधक होता है जहाँ एक और शहर में प्रातः अभिभावक अपने बच्चे को टाई बेल्ट पहनाकर और लंच तैयार कर बस के इंतज़ार में खड़े होते हैं वही गांव के अभिभावक इस समय रोजी रोटी के लिए निकल चुके होते हैं और उनके बच्चे घर के शेष कार्य निपटा रहे होते हैं। शहर में बच्चे के वेहतर भविष्य के लिए हर संभव सुविधा जुटाने की कोशिश की जाती है वही गांव में जीवन जीने के लिए न्यूनतम सुविधा और अर्थ जुटाने की कवायद की जाती है।

           शहर में बच्चों के शैक्षिक सपोर्ट केलिए और उनके क्षमताओं को विकसितकरने के लिए ट्यूशन और कोचिंग की चिंता की जाती है वही गांव में बच्चे को कमानेलायक बनाने के लिए पिता के पैतृक धंधे से जोड़ने की शुरुआत उसके बचपन में ही हो जाती है। शहर में जहाँ कक्षा 10 की छात्राएक कप चाय भी नहीं बनाना चाहती है वहीगांव में कक्षा 8 की छात्रा घर का खाना बनानेघर चलाने और बच्चे पालने जैसे लगभगसभी गुणों में निपुण हो चुकी होती है। गांव मेंपढ़ाई से ज्यादा प्राथमिकता दो वक़्त की रोटी की व्यवस्था कर न्यूनतम जीवन स्तरअर्जित करना भर है और इसमें परिवार काप्रत्येक व्यक्ति अपनी उम्र और क्षमता केअनुरूप सहयोग करता है। अब अगर इसमें दो बच्चे शिक्षा के नाम पर केवल विद्यालय में ही रहते हैं तो स्वाभाविक रूप से उनकीआर्थिक स्थिति  पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हालाँकि ऐसी स्तिथि केवल गरीब वर्ग के35 से 40 प्रतिशत परिवारों की ही है पर यही30 से 40 प्रतिशत छात्र सरकारी स्कूल कीकम उपस्थिति का कारण बनते हैं।

             बेसिक शिक्षा विभाग ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के छात्रों के आंकलन के लिए एक जैसे मानक प्रयोग करता है जबकि शहरी क्षेत्र में अभिभावक अपने छात्र के प्रति अधिक सचेत, जागरूक और जिम्मेदार होता है जिसका सीधा प्रभाव उसकी अधिगम क्षमता पर दिखाई देता है जबकि ग्रामीण क्षेत्र में 6 घंटे के विद्यालय के बाद छात्र का पढ़ाई से कोई नाता नहीं होता है वही ग्रामीण बंचित वर्ग में खानपान और स्वास्थ्य संबंधी जरूरत पूरी ना होने के कारण छात्रों की अधिगम क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ऐसे में दोनों क्षेत्रों के बच्चों की तुलना करना न्यायसंगत नहीं दिखता है। शहरी क्षेत्र में अभिभावक स्वयं ही बच्चे के प्रवेश के लिए प्रयास करता है जबकि ग्रामीण क्षेत्र में कई बच्चों को जबरन स्कूल में प्रवेश कराया जाता है और जब स्तिथि जबरन रोके रखने की होती है तो उसे कुछ सिखा पाना अपेक्षाकृत अधिक कठिन हो जाता है। हालाँकि सर्व शिक्षा अभियान की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने सभी बच्चों को स्कूल की दहलीज़ पार करवा दी है पर इन्हें विषम पारवारिक और सामाजिक परिस्तिथियों में विद्यालय में बनाये रखने और विद्यालय को अपनाने के लिए प्रेरित करना कोई साधारण कार्य नहीं है।

              सरकार ने समाज में दो तरह के विद्यालयों की व्यवस्था कर रखी है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय गांव के अत्यंत गरीब बच्चों के विद्यालय है जहाँ सब कुछ निःशुल्क प्राप्त होता है वही मान्यता प्राप्त और कान्वेंट अमीरों के विद्यालय हैं जहाँ हर कार्य के लिए पैसे खर्च करने होते हैं। सरकारी स्कूल में पढ़ने का अर्थ समाज में यह माना जाता है कि यह परिवार अत्यंत गरीब और दीनहीन है और इसके पास खाने तक के लिए पैसे नहीं है इसलिए कोई भी ऐसा परिवार ,जिसकी स्थिति थोड़ी भी ठीक है वह सबसे पहले अपने बच्चे को किसी निजी विद्यालय में प्रवेशित कराकर समाज में अपनी हैसियत बढ़ाना चाहता है। वही समाज का रईस और अभिजात्य वर्ग किसी भी कीमत पर अपने बच्चे का प्रवेश ,लाखों की फीस और डोनेशन लेने बाले अग्रणी विद्यालय में करवाना चाहता है।

            अगर प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन घट रहा है तो इसका अर्थ ये भी हो सकता है कि लोगों का आर्थिक स्तर मजबूत हो रहा है क्योंकि जिस व्यक्ति का आर्थिक स्तर थोडा सा भी ठीक हो जाता है वह तुरंतअपने बच्चे का नाम सरकारी विद्यालय सेपृथक  करवाकर की निजी मान्यता प्राप्त विद्यालय में लिखवा देता है। समाज में यह दोहरी व्यवस्था सरकार की ही देन है जिसमे अलग अलग सामाजिक वर्गों के लिए अलग अलग प्रकार के विद्यालयों की व्यवस्था है। समाज में जैसे जैसे गरीबी घटेगी वैसे ही सरकारी स्कूल में बच्चों की संख्या घटती जायेगी और नए निजी विद्यालयों की संख्या बढेगी।

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