MAN KI BAAT : प्राथमिक विद्यालयों के अध्यापक यानि चौदह खाने की रिन्च
डॉ. ओ.पी. निश्र
शिक्षा मन्त्री का नाम नहीं आता। अब आप आसानी से इस बात को समझ दुनिया और समाज का पूरा ताना-बाना बदल गया। उद्योगों की संरचना सकते है कि जिन विद्यार्थियों को ये अध्यापक पढ़ायेगे उनका भविष्य क्या न केवल उ0प्र0 बल्कि शायद ही देश का ऐसा कोई ोगा? आगे चलकर वे बेरोजगारों की श्रेणी में आने के अलावा क्या कर पायेगे? आखिर सरकार यह क्यों नहीं सोचती कि 'बीएसएनल घाटे में जा विद्यालयों केवल शिक्षण कार्य होता है। इसे अगर रहा है जबकि 'जियो' प्रपुल्लित हो रहा है? सरकारी अस्पतालों में लोग इलाज में को तैयार है? लोग पोस्ट आफ्सि से काम लेने की बजाये कोरियर को पसन्द करते है? प्राइमरी स्कूल में जहाँ बच्चों को सरकार को मंशा शायद 'साक्षर' बनाने है, "शिक्षित' बनाने की नहीं। वैसे है वहा भेजने के बाे अि के के क की सन कुषछ मुफ्त मिलेता अपने बच्चों को ऐसे सवाल जिससे न केवल सरकार ये बल्कि बेसिक शिक्षा परिषद को भी तलाशना होगा वरना वह दूर नहीं की कोठी हो जायेगी।
राज्य हो जहाँ के प्राथमिक विद्यालय या अपर प्राथमिक दूसरे शब्दों में कहे तो इन जाते है। इससे यह साबित होता है कि शायद पढ़ाई सरकार की पहली प्राथमिकता है ही नहीं? और अगर है भी तो की मिलती है उसके : भी जो रिपोर्ट पढ़ने को अनुसार जो स्कूलों में 'फर्जी छात्र स्कूलों में क्यों भेजते है? संख्या' के आधार पर नियुक्ति की जाती है, उसी के हिसाब से किताबें, बस्ते और डेअसे आती हैं तथा मध्यान्ह भोजन की व्यवस्था उसी छत्र संख्या के िणा आधार पर होती ने मुझे एक बार बताया पत्नी का जिस स्कूल में ज्वाइन कराना था उस स्कूल की छात्र संख्या इतनी यो कि कि उन्हें अपनी एक और अध्यापक को उस विद्यालय में समायोजित किया जा शिक्षा सके। लेकिन चुँकि यह नियुक्ति हाई प्रोफाइल थी इसलिए खण्ड शिक्षा अधिकारी के उस समय 'डिप्टी साहब' हुआ करते थे को विश्वास में लेकर चालीस नाम चल फर्जी बढ़ाये गये फिर उसी स्कूल में अध्यापक को ज्वाइन कराया गया। यह तो एक उदाहरण मात्र है जबकि बेसिक शिक्षा परिषद इस तरह के उदाहरणों से ली जा भर पड़ा है। प्राथमिक विद्यालय के अध्यापकों को पुलिस के एक सब- इन्सपेक्टर से अधिक वेतन मिलता है इसके बावजूद उसका कोई जिम्मेदारी न करेगे, विभाग ने तय है और न ही विद्यार्थियों के प्रति या उनकी शिक्षा के प्रति कच्चा उनकी कोई जवाब देशी है। बेसिक शिक्षा विभाग की के लिए दोनों दकान दुर्दशा शरीके जुर्म' है यानी 50 प्रतिशत अध्यापक स्कूलों में बिल्कुल पढ़ाना चाहते। नहीं उनकी सारी चिन्ता वेतन' पर ही लगी रहती है इसके बदले उन्हें इस लगे बात की बिल्कुल चिन्ता नहीं है कि उनके विद्यालय के कक्षा पाँच के छात्रों को जरूर भी कक्षा तीन का ज्ञान नहीं है। वैसे ऐसा नहीं है कि शिक्षा के लिए केवल बच्चे अध्यापक ही जिम्मेदार है इसके लिए सरकार भी बराबर जिम्मेदार है। जिसका जाती लक्ष्य मिडडे मील तक ही सीमित है। बहुत पुरानी कहावत है कि जो वस्तु है। मिलती है उस वस्तु की विश्वसनीयता पर सदैव प्रश्न चिन्ह लगा 'खुले रहता है। वह चाहे सरकारी अस्पताल की दवाई हो या प्राथमिक विद्यालय की मे एसोसिएशन शिक्षा यूपी ग्रामीण पत्रकार । द्वारा पूरे उ0प्र0 में नवम्बर 2019 लेकिन पचास प्रतिशत में कराये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक प्राथमिक विद्यालय अध्यापक प्रतिदिन स्कूल नहीं जाते, पाँच प्रतिशत अध्यापक खण्ड शिक्षा रहते अधिकारी तथा बेसिक शिक्षाधिकारी के कार्यालयों में बैठकर 'नेतागीरी' करते के है तीस प्रतिशत अध्यापक सप्ताह में तीन दिन जाते है जबकि पन्द्रह प्रतिशत 42.6 है जब अध्यापक अपने स्थान पर किसी दूसरे को रखकर काम करवाते है। वैसे ऐसा करवाते हैं। नहीं है कि इन बातो की जानकारी अधिकारियों को नहीं है बिल्कुल है लेकिन जैसे से नीचे तक सब 'मैनेज' है। अगर मैसेज ना होता तो हजारों तादाद में जो फर्जी अध्यापक, फर्जी प्रमाण पत्र लगाकर नौकरी कर रहे थे, वेतन प्राप्त साथ कर रहे थे वे कैसे नियुक्ति पा जाते? मतलब साफ है कि न हमको पढ़ाने के लिए स्कूल जाना है, न उनको पढ़ना है और न ही हमको पढ़ाना है। कितने है। दुख की बात है कि कक्षा पाँच के छात्रों को कक्षा दो का पहाड़ा तक नहीं आता? इतना ही नहीं चालीस प्रतिशत अध्यापकों को राष्ट्रगान नहीं आता। का जबकि 52 प्रतिशत पोस्ट ग्रेजुएट अध्यापकों को अपने राज्य के राज्यपाल और अभी तक देश में 34 साल पहले बनी शिक्षा नौति लागू थी इस बीच देश,
बदल गयी, जीवन व्यवहार बदल गया और सबकी जरूरते बदल गयी लेकिन प्राथमिक और अपर प्राथमिक विद्यालयों की व्यवस्था उन्ही 'डिप्टी साहब के रहमो-करम पर चलती रही जिन्हे अध्यापकों के रिटायरमेन्ट के फड से भी पैसा चाहिए। के भारतीय शिक्षा 'वैश्वीकरण करने में सफल होगी, छात्रों को किताबी ज्ञान
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संविधान प्रदत्त 'मुफ्त बेसिक शिक्षा" भारत के निरवासियों के बच्चों को पढ़ाने के लिए जितना पस िक सरकार हो सकता है। यह तो हुआ बेसिक है उसी का सही सदुपयोग हो सकता है। प्रथा जबकि दूसरे पक्ष यह है कि इन अध्यापकों के पास पढ़ाने कोरोना जिम्मेदारी है। इस समय खर्च करती है का एक पक्ष अलावा और तमाम कुछ करने की रहा है इसलिए इन अध्यापकों को 'सर्वे में लगाया गया है। इन दिनों चंकि काल विद्यालयों में पठन-पाठन का काम बन्द है इसलिए अध्यापकों से 'बेगार रही है। फि जब चुनाव का समय आयेगा। तो 'वोटर लिस्ट' सत्यापन यही अध्यापक करेंगें, नाम जोडने और नाम नाम हटाने का काम भी यही पोलियों ड्राप पिलवाने में भी सहयोग करेंगे, पहले राशन मिलता था मिड डे मील में भी यही अध्यापक बच्चों को लेकर राशन की चलाने वाले के यहाँ जाते थे और सारा दिन बच्चों के साथ धूप में ही नहीं अब तो किताब धोने थे। इतना का काम भी यही अध्यापक करने है। चुनाव के समय कई बार समाचार पत्रों में एक-दो फेटो देखने मिल जाती है जिसमें महिला अध्यापिका गोदी में अपने छः महीने को लिये और सिर पर 'बैलट बाक्स' या 'बैलट मशीन' का बोरा देखी जा सकती है। जनगणना करना तो मानों शिक्षकों का मूल कार्य जी सकता है पिछले दिनो मुझे एक समाचार पढ़नेको मिला था जिसमे लिखा था कि में शौच मुक्त भारत अभियान' के तहत कई राज्यों में शिक्षको को या में शौब करने वालों की निगरानी का काम दिया गया है। पढ़कर अजीब चूँकि तमाम सरकारी अधिकारियों/कर्मचारियों की आँखों का वेतन खटकता रहता है इसलिए इस तरह के आदेश जारी होते 'अध्यापकों है। तभी मैनें इन्हे 'चौदह खाने की रिन्च' कहा है। एक देशव्यापी अनुसार शिक्षक औसतन 19.1 प्रतिशत समय ही पढ़ाई में लगाते है जबकि प्रतिशत इनका समय गैर शैक्षाणिक गतिविधियों में जाता है वाघ्या में अगर विद्यालय के प्रधानाध्यापकों की बात की जाये तो इनके 57.3 प्रतिशत विभिन्न तरह के बिल तैयार करना और जमा करना, विभिन्न विभागों पत्रकार करना, रिकार्ड दुरुस्त करना, कैश त बुक आदि मेंटेन करने साथ ही स्कूलों में साफसफई की व्यवस्था करवाना, बिजली, पानी, लाइट शौचालयों की देखरेख करना तथा ग्राम प्रधान के यहाँ चक्कर लगाने मे ही अब जब नयी शिक्षा नीति को केन्द्रीय मंत्रिमडल ने मंजूरो दे दी है तो मानकर चलना चाहिए कि प्राथमिक विद्यालयों के अध्यापकों तथा विद्यालयों 'कुछ सख्ती' के साथ यकीनन काया कल्प होगा। यहाँ यह बताते चले
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के साथ ही साथ समाज से जोडेगी और एक संस्कारवान भारतीय नागरिक के
आ में तैयार करेगी। शिक्षाविद तुषार रूप में चेतावनी के अनुसार नयी शिक्षा स्कूल शिक्षा को महत्व दिया है। इसे विश्व स्तर पर एक बच्चे की मानसिक के विकास क्षमताओ के लिए महत्वपूर्ण चरण मान्यता दी के रूप में मा के सयी है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आने वाला समय के लिए चुनौती भरा अध्यापकों भूले ही अब से ज्यादा चौदह नयी रहेगी खाने की रिन्च बनकर नहीं शिक्षा नीति से अध्यापको को भले तमाम दबाव डालने पढ़े लेकिन हरा के स के इतना तो कि हमारे नौनिहालों का भविष्य यकीनन उज्जवल होगा और वे किसी भी काम्पीटशन से निपटने में 'पारंगत' होगें। नयी शिक्षा नीति की सबसे बड़ी खासियत यह है कि अब पहले तीन साल आंगनबाड़ी में प्री प्री-स्कृलिगं होगी अभी तक यह काम प्राइवेट सेक्टर के स्कूल करते थे और अच्छ खासा धन अर्जिंत करते थे। आंगनबाड़ी के बाद अगले दो के बाद अगले दा साल यानि कक्षा एक और पढ़ेगे जिसमें एक्टिविटी स्कूल में आधारित पाठ्यक्रम शामिल होगा। इसके बाद कक्षा तीन से पाँच तक प्रयोगों के जरिये विज्ञन, गाणित, कला आदि विषयों की पढ़ाई की जायेगी इसमें 8 से 11 साल बच्चे शामिल होंगे इसे तक की अ प्री-प्राइमरी स्टेज कहा जायेगा इसके बाद शुरू होगा मिडिल स्टेज, इसमें कक्षा 6 से आठ तक की पढ़ाई होगी। इसमें पढ़ाई के साथ ही कौशल विकास कोर्स भी शमिल रहेगा ताकि आगे जाने वाले बच्चों को अपनी सुविधा तथा योग्यतानुसार कुछ
बू आती पर-प्रान्त ?
मामला पेचीदा।
बन गया सुशांत ।। उड़ गयी सरकार। बू आती पर प्रांत ? एकजुट का नाटक। दिखता अलग सुर॥ मुख्य जो है मुद्दा । दिनेश भट्ट ? प्रश्न चिन्ह लग गया। मिला जो सहयोग ।। इतने दिन का वाजिब। हुआ नहीं उपयोग? दर-दर मारे फिर रहे। जांच को है आए | सवालिया निशान ।
मोदी जी दिलवाए।
कृष्णेन्द्र राय
नया करने का मौका मिल सके। (लेखक- राज्य मुख्यालय पर मान्यता प्राप्त वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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