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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

MAN KI BAAT : शहरों और ग्रामीण इलाकों में चलने वाले स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है फिर भी बहुउद्देश्यीय कर्मी का कार्य करते हुए बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता पर बड़ा सवालिया निशान.......

MAN KI BAAT : शहरों और ग्रामीण इलाकों में चलने वाले स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है फिर भी बहुउद्देश्यीय कर्मी का कार्य करते हुए बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता पर बड़ा सवालिया निशान.......

प्राथमिक शिक्षा की हालत में सुधार के लिए आने वाले सालों में उत्तर प्रदेश को कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। खासकर शिक्षा को सार्वभौमिक अधिकार बनाने वाली योजनाओं की सफलता को लेकर कई स्तरों पर संशय कायम है। प्राथमिक शिक्षा की स्थिति सुधारने के लिए भारत दुनिया के कई देशों से आर्थिक मदद लेता है। लेकिन हमें लगता है मंदी के दौर में इसमें कटौती हो सकती है। यदि ऐसा होता है तो इसका प्रभाव सर्वशिक्षा अभियान पर भी जरूर पड़ेगा।

आज तमाम ऐच्छिक आवश्यकताओं के साथ तेजी से बदलते समय ने शिक्षा के स्वरूप को पूरी तरह बदल दिया है। जनसांख्यिकीय दबाव ने संबंधित ईकाइयों को भारी निवेश के लिए अग्रसर किया, जिससे शिक्षा बदलते परिवेश में पूरी तरह व्यावसायिक और अल्पग्राही बनती जा रही है क्योंकि शिक्षा के हर क्षेत्र में शिक्षा माफिया भी कार्य कर रहे हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रतिवर्ष पूरे देश में पांचवीं कक्षा तक आते-आते छात्र-छात्राएं स्कूल छोड़ देते हैं।

यह कटु सत्य है कि सरकारी स्कूलों में संसाधनगत सुविधाओं की भारी कमी के चलते अभिभावक निजी स्कूलों के तरफ आकर्षित हो गये हैं। सरकारों का इस ओर ध्यान ही नहीं जाता कि पहले से ही कुशल और प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी झेलते सरकारी विद्यालयों के शिक्षक अपना बढ़िया प्रदर्शन कर रहें फिर विभाग और सरकार सरकारी शिक्षकों को नकारा साबित करते हुए तमाम कारणों को गिनाते हुए नीजिकरण की राह पर धकेल रही है। यह भी सत्य है कि सरकारी विद्यालयों में शौचालय तो क्या, बच्चों के बैठने तक की समुचित व्यवस्था नहीं है। जिन कारणों से सरकारी स्कूलों के बच्चे बिना जूता मोजा के ही दिखायी देते हैं।

एक कड़वी सच्चाई है कि उत्तर प्रदेश के परिषदीय विद्यालयों में शिक्षकों की भारी कमी है जिस पर सरकारों का ध्यान नहीं जाता आप यह कैसे मानते हैं कि एक -दो शिक्षक बहुद्देश्यीय कर्मी जैसा कार्य करते हुए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे पाने में सक्षम हो जायेगा। मेरा मानना है कि सरकारों और बेसिक विभाग को प्राइवेट विद्यालयों को मान्यता देने की प्रक्रिया पर तुरन्त विराम चिन्ह लगा देना चाहिए। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि प्राइवेट विद्यालय सरकारी विद्यालयों को खत्म करके ही दम लेंगे।

  यह भी विडंबना है कि वृहद शिक्षा प्रणाली का दम भरने वाले देश में अभी भी लाख बच्चों तक शिक्षा की रोशनी नहीं पहुंची है। राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद का शोध बताता है कि भारत के नब्बे फीसद कॉलेजों और सत्तर फीसद विश्वविद्यालयों का शैक्षिक स्तर भी बहुत कमजोर है। मसला सिर्फ बदहाल शिक्षण संस्थानों का नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश में परिषदीय विद्यालयों को नीजिकरण के तरफ ले जाने के साथ ही शिक्षकों की दयनीय हालत का भी है। जहां एक ओर कुशल और प्रशिक्षित शिक्षकों की भारी कमी है, वहीं बेसिक शिक्षा की बागडोर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के नाम पर "प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन" जैसी गैर-सरकारी संस्था को परिषदीय प्राथमिक विद्यालयों के बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के लिए आगे बढ़ाने का प्रयास हो रहा है। जो परिषदीय शिक्षक देश और राज्यों के लोकतंत्रात्मक व्यवस्था को कायम करने के लिए अपने जानों की परवाह न करते हुए भी अपने पूर्ण क्षमता से कार्य करते हुए निर्वाचन जैसे महत्वपूर्ण कार्यों को भलीभांति स्वच्छतापूर्ण रूप से सम्पन्न कराकर सरकारों के बनने में अपनी महती भूमिका निभा देता है तो कैसे यह माना जाए की वह अभावों के बावजूद गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने में सक्षम नहीं है। बशर्ते अपवादों को ध्यान न देकर समाज के साथ विभाग और सरकारों को भी शिक्षकों पर दण्डात्मक कारवाइयों के करने से बचते हुए विश्वास करना होगा।

आप सबको ध्यान होगा सरकारी प्राथमिक स्कूलों की दशा को सुधारने के लिए माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पूर्व में आदेश दिया था कि सभी सरकारी अधिकारियों, निर्वाचित प्रतिनिधियों और न्यायिक कार्य से जुड़े अधिकारियों के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाए कि वे अपने बच्चे को पढ़ने के लिए सरकारी स्कूलों में भेजें। अगर वे ऐसा नही करते हैं तो उनके वेतन से निजी कान्वेंट स्कूल की फीस के बराबर धनराशि काट ली जाए और उसे सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने में खर्च किया जाए। इस कड़ी में मैं कहना चाहता हूं कि सरकारों को इस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए यह भी आदेश करना चाहिए कि सामान्य जन जो सरकारी लाभ लेने का दम भरते हैं वह भी अपने बच्चों को अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ायें अन्यथा सामान्य जन को सरकारी लाभों से वंचित किया जाए । हां लेकिन सरकार को भी इस बात को ध्यान चाहिए कि जब सरकारी विद्यालयों को प्राइवेट विद्यालयों के समक्ष खड़ा करना चाहते है तो सरकारी विद्यालयों के मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति (बिजली, पंखा, डेस्क-बेंच, स्वच्छ जल, सभी कक्षाओं के लिए शिक्षक, प्रधानाध्यापक, चपरासी, लिपिक) आदि के साथ शिक्षकों के लिए भी उचित व्यवस्था करना चाहिए। आप यह विश्वास करें नवीन सत्र के प्रारम्भ होने के कुछ माह पहले से सरकारी विद्यालयों के नामांकन बढ़ाने की जो कवायद शुरू होती है वह नामांकन बिना कवायद के ही बढ़ जायेगी।

आज भारत में साक्षरता पहले से बढ़ी है। अंगरेजों के शासन के अंत तक होने वाली यानी 1947 में भारत की साक्षरता दर केवल बारह प्रतिशत थी, जो 2011 में बढ़ कर 74.04 प्रतिशत हो गई। पहले से छह गुना अधिक, मगर विश्व की औसत शिक्षा दर से काफी कम। हालांकि साक्षरता के लिए सरकार काफी सक्रिय रही है। समय-समय पर कई तरह की योजनाएं लाती रही है। इसके बावजूद 1990 में किए गए अध्ययन के मुताबिक 2060 से पहले भारत विश्व की औसत साक्षरता दर को नहीं छू सकता, क्योंकि 2001 से 2011 तक के दशक में भारत की साक्षरता दर में वृद्धि केवल 9.2 प्रतिशत रही। 

अन्त में मैं कहना चाहता हूँ कि आपको यह जानकर हैरानी होगी कि ऐसे बहुतायत सरकारी स्कूल हैं, जहां बच्चों को पीने का साफ पानी भी मुहैया नहीं कराया गया है। ऐसे ही बहुत से सरकारी स्कूल हैं, जहां शौचालय की सुविधा नहीं है। शहरों और ग्रामीण इलाकों में चलने वाले स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है फिर भी बहुउद्देश्यीय कर्मी का कार्य करते हुए बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता पर बड़ा सवालिया निशान लगाना कहां तक उचित प्रतीत होता है । परिषदीय विद्यालयों को हर दिन नवीन शोध करने की श्रेणी से बाहर सोच कर रखना होगा। अन्त में मेरा मानना है कि प्रशिक्षित स्तरीय शिक्षक आदि के विकास के लिए अतिरिक्त बजट का प्रावधान करना चाहिए। साथ ही बुनियादी शिक्षा की समस्या को सिरे से समझना होगा, क्योंकि उच्च शिक्षा की नींव बुनियादी शिक्षा के मजबूत कंधों पर ही टिकी होती है।

       ।।जय शिक्षक जय भारत।।
        आपका अदना सा शिक्षक
            दयानन्द त्रिपाठी

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