MAN KI BAAT : हमारे लोकतंत्र में बड़ी भूमिका निभाते स्कूल और अध्यापक, लोकतंत्र के धर्म में स्कूल ही वास्तविक मंदिर हैं और वे सांविधानिक मूल्यों के पवित्र देवता हैं हम इसे समझने.......
उत्तरी बेंगलुरु लोकसभा सीट के लिए जब मैं 18 अप्रैल को मतदान करने गया, तो मेरा मतदान केंद्र था जकूल गवर्नमेंट स्कूल में। ज्यादा संभावना यही है कि आपका मतदान केंद्र भी किसी सरकारी स्कूल में ही होगा, क्योंकि देश के ज्यादातर मतदान केंद्र ऐसे ही स्कूलों में बनाए जाते हैं। देश में हर कुछ किलोमीटर पर एक न एक स्कूल होता ही है और उन्हें मतदान केंद्र में बदलना आसान होता है। देश में ऐसे लाखों मतदान केंद्र होंगे।
पिछले आम चुनाव में 37 लाख लोगों की ऐसे मतदान केंद्रों में ड्यूटी लगी थी। इनमें सुरक्षाकर्मियों की संख्या शामिल नहीं है।
मतदान केंद्रों में जिन लोगों की ड्यूटी लगाई जाती है, उनमें ज्यादातर स्कूल अध्यापक ही होते हैं। अनुमान है कि इस कार्य में लगाए गए लोगों में 50 से 60 फीसदी तक स्कूल अध्यापक होते हैं। इसका अर्थ हुआ कि करीब 20 लाख अध्यापक हमारे देश के चुनाव संपन्न कराने के अनुष्ठान में जुटते हैं। मतदान केंद्र में उनकी भूमिका काफी अहम होती है। वे निर्वाचन अधिकारी से लेकर चुनाव अधिकारी तक का काम करते हैं। उन्हें यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी दी जाती है कि मतदान के दिन शाम तक हर नागरिक अपना वोट डाल सके। सरकारी स्कूलों और अध्यापकों से चुनाव संपन्न कराना व्यावहारिक भी है और इसे उनकी भूमिका से जुड़ा हुआ काम भी माना जाता है। भले ही कुछ लोगों को यह गलत लगता हो, पर यह किसी दुर्घटनावश नहीं हुआ, बल्कि हमारे लोकतंत्र का जो स्वरूप है, उसी का नतीजा है।
मतदान केंद्रों में जिन लोगों की ड्यूटी लगाई जाती है, उनमें ज्यादातर स्कूल अध्यापक ही होते हैं। अनुमान है कि इस कार्य में लगाए गए लोगों में 50 से 60 फीसदी तक स्कूल अध्यापक होते हैं। इसका अर्थ हुआ कि करीब 20 लाख अध्यापक हमारे देश के चुनाव संपन्न कराने के अनुष्ठान में जुटते हैं। मतदान केंद्र में उनकी भूमिका काफी अहम होती है। वे निर्वाचन अधिकारी से लेकर चुनाव अधिकारी तक का काम करते हैं। उन्हें यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी दी जाती है कि मतदान के दिन शाम तक हर नागरिक अपना वोट डाल सके। सरकारी स्कूलों और अध्यापकों से चुनाव संपन्न कराना व्यावहारिक भी है और इसे उनकी भूमिका से जुड़ा हुआ काम भी माना जाता है। भले ही कुछ लोगों को यह गलत लगता हो, पर यह किसी दुर्घटनावश नहीं हुआ, बल्कि हमारे लोकतंत्र का जो स्वरूप है, उसी का नतीजा है।
हमारे लोकतंत्र के सभी संस्थापक यही मानते थे कि शिक्षा लोकतंत्र में केंद्रीय भूमिका निभाएगी। भीमराव आंबेडकर से जवाहरलाल नेहरू तक सभी की राय थी कि शिक्षा से लोकतंत्र को ऊर्जा मिलेगी। वे मानते थे कि राजनीतिक लोकतंत्र सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र से ही स्थापित होगा, जिसे सबको शिक्षा देकर ही प्राप्त किया जा सकता है। हमारे लोकतंत्र के बौद्धिक, बहुलतावादी, और मानवीय आदर्शों को गांधी के विचारों में भी देखा जा सकता है, जो मानते थे कि सही शिक्षा से ही लोकतंत्र सही ढंग से काम करेगा। इस हिसाब से देखें, तो स्कूलों की यह भूमिका हमारे लोकतंत्र के स्वरूप में ही निहित कर दी गई है। यही वजह है कि हमारे स्कूलों में चुनाव होते हैं व हमारे अध्यापक उसकी प्रक्रिया का संचालन करते हैं। उनकी भूमिका के चार और पक्ष हैं।
पहला यह कि वे बच्चों को लोकतंत्र की शिक्षा देते हैं। बताते हैं कि लोकतंत्र क्या होता है? इसकी संस्थाएं क्या हैं? वे कैसे काम करती हैं? वे इसका इतिहास पढ़ाते हैं, इसके सिद्धांत समझाते हैं, इसके तौर-तरीके सिखाते हैं और इसका यथार्थ बताते हैं। वे ये भी बताते हैं कि लोकतंत्र में नागरिक के अधिकार क्या होते हैं, उसकी जिम्मेदारियां क्या होती हैं और उनसे अपेक्षाएं क्या की जाती हैं? दूसरा, वे छात्रों में लोकतंत्र के आदर्शों का भाव भरते हैं। वे सिखाते हैं कि भारत क्या है और भारतीय कौन हैं? हम कैसे बेहतर भारतीय बन सकते हैं? लोकतंत्र का ज्ञान ही काफी नहीं है, उसकी इच्छाशक्ति पैदा करना भी जरूरी है। तीसरा, वे देश में वह क्षमता पैदा करते हैं, जो लोकतंत्र को अच्छी तरह चलाने के लिए जरूरी होती है, यानी मूलभूत साक्षरता पैदा करना। लोगों में वह सामथ्र्य पैदा करना कि वे सवाल पूछ सकें, आलोचना कर सकें और विकल्प के बारे में सोच सकें, ताकि प्रचार और दुष्प्रचार के कुहासे व अंधेरे से राह निकाली जा सके। चौथा, स्कूल और अध्यापक उस सामाजिक व आर्थिक बदलाव के वाहक हैं, जिसे हमने अपने संविधान में स्थापित किया है।
हमारे स्कूल और अध्यापक आदर्श नहीं हैं। बेशक कई बहुत अच्छा करते हैं, कई बहुत अच्छे की कोशिश करते हैं, लेकिन ज्यादातर कमतर रह जाते हैं। इसमें उनका कोई दोष नहीं है। हमारे लोकतंत्र के स्वरूप में उनकी भूमिका उसके उलट है, जो हमने उनके साथ किया है। हमने उनके मूल्य को कम आंका, उनमें कम निवेश किया और उन्हें कम महत्वपूर्ण बना दिया। इन सारे हालात से टकराते हुए भी कई अध्यापकों ने अपनी भूमिका को बहुत अच्छी तरह से निभाया है। लोकतंत्र के धर्म में स्कूल ही वास्तविक मंदिर हैं, और वे सांविधानिक मूल्यों के पवित्र देवता। हम इसे समझने में नाकाम रहे, लेकिन अब इसे समझना होगा। यही वे मंदिर हैं, जिनकी हमें प्राण-प्रतिष्ठा करनी होगी।
(ये लेखक अनुराग बेहर के अपने विचार हैं)
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