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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

MAN KI BAAT : समन्वय के अभाव से जूझती शिक्षा है क्योंकि यदि राज्य सरकारें अपनी व्यवस्था चाक-चौबंद करने में लग जाएं तो निश्चित ही अगले तीन-चार वर्ष में शिक्षा के क्षेत्र में सभी को व्यापक......

MAN KI BAAT : समन्वय के अभाव से जूझती शिक्षा है क्योंकि यदि राज्य सरकारें अपनी व्यवस्था चाक-चौबंद करने में लग जाएं तो निश्चित ही अगले तीन-चार वर्ष में शिक्षा के क्षेत्र में सभी को व्यापक......

यह महत्वपूर्ण है कि शैक्षिक मोर्चे पर बदलाव को लेकर गहन विचार-विमर्श शुरू हो रहा है। इसी कड़ी में उच्च शिक्षा क्षेत्र में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यूजीसी के स्थान पर एक राष्ट्री उच्च शिक्षा आोग बनाने का बिल तैार है। अध्यापक प्रशिक्षण के क्षेत्र में एनसीटीई एक्ट में परिवर्तन किए गए हैं। शिक्षा के अधिकार अधिनिम को भी संशोधित किा गा है। नए प्रावधान के अनुसार कक्षा पांच और आठ में परीक्षा होगी। एक बार असफल होने पर बच्चों को दूसरी बार भी अवसर दिा जाएगा कि वह उसी वर्ष पुन: परीक्षा देकर सफल हो जाए। अनेक लोग इस नीति परिवर्तन का विरोध कर रहे हैं, लेकिन अधिकांश लोगों को लगता है कि ह किा जाना चाहिए। नई शिक्षा नीति भी आने वाली है और अपेक्षा करनी चाहिए कि शैक्षिक सुधारों और परिवर्तनों को भविष् में समग्र दृष्टि से देखा जाएगा और उसके सकारात्मक परिणाम आएंगे।

पिछले पांच दशकों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार में दुनिा भर में अनेक देशों ने भाग लिा है। इस प्रक्रिा में सभी को अत्ंत लाभकारी अनुभव भी हुए हैं। आशा करनी चाहिए कि इनका लाभ उठाकर जो नीति और उसके क्रियान्वयन की जो रूपरेखा बनेगी उसकी गतिशीलता, उपोगिता एवं सार्थकता बाबूओं के समक्ष नई संभावनाओं के द्वार खोलेगी। देश में शिक्षा को नीति और प्रशासन में सुविधा के नाम पर कई भागों में बांट दी जाता है। राज्यों  में अक्सर ही शिक्षा विभाग से जुड़े चार-पांच मंत्रिों का होना आश्चर्जनक नहीं माना जाता। केंद्र में भी अब स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा को दो स्पष्ट विभागों में बांट दिा गा है। स्कूली शिक्षा एवं उच्च शिक्षा और उनके सचिव अलग-अलग हैं। केंद्र में मेडिकल और कृषि शिक्षा अलग मंत्रलों से संचालित होती है। चाहे केंद्र सरकार हो या राज्यों  की सरकार उनमें समन्वय का अभाव जगजाहिर है। शिक्षा की गतिशीलता ही उसकी उपोगिता और स्वीकार्ता निर्धारित कर सकती है। जब जमीनी अनुभव की अनदेखी कर विदेशों में अच्छी समझी जाने वाली नीतिों को अपनाा जाता है तो शिक्षा व्वस्था में अस्थिरता बढ़ जाती है।

कक्षा दस की परीक्षा को वैकल्पिक बनाना और कक्षा आठ तक परीक्षा को समाप्त करना ऐसी ही नीतिां थीं जो सिद्धांत रूप में सही थीं, मगर मूल आवश्कताओं की अनुपस्थिति में उनसे अपेक्षित लाभ हासिल नहीं होता। निजी स्कूलों में जहां छात्र-अध्यापक अनुपात उचित था, अध्यापकों में अनुशासन था, प्रबंधन अपना कार् कर रहा था, विद्यार्थियों को कक्षा आठ तक परीक्षा न होने से कोई हानि नहीं हुई। सबसे अधिक हानि उन सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को हुई जहां न तो निमित अध्यापक थे, न ही छात्र-अध्यापक अनुपात सही था, न ही निमित प्राचार और अनुशासन था। बच्चों ने क्या सीखा, नहीं सीखा, इसके लिए किसी को उत्तरदायी नहीं बनाा गा। परिणामस्वरूप अनेक सर्वेक्षणों में अत्ंत चिंताजनक स्थितिां सामने आईं और नीतिगत परिवर्तन आवश्क हो गा। दि कक्षा पांच के आधे विद्यार्थीयों कक्षा दो की पुस्तक न पढ़ सकें  तीन और सात का गुणनफल न बता सकें तो ह चिंताजनक है।

नई शिक्षा नीति के आने के पहले ही उसे लागू करने की तैयारी प्रारंभ हो जानी चाहिए। सुधार के अनेक आाम तो अनेक दशकों से सर्वविदित हैं।

आज से 50 साल पहले शिक्षा की प्रत्येक राष्ट्री-अंतरराष्ट्रीय चर्चा-परिचर्चा में लगभग हर बार चार पक्षों का जिक्र किा जाता था और ह माना जाता था कि इनमें वे सभी पक्ष अंतर्निहित हो जाते हैं जो किसी भी सफल नीति निर्धारण के अंग बनते हैं। चार पक्ष हैं-किसे पढ़ाएं, क्या पढ़ाएं, कौन पढ़ाए और कैसे पढ़ाएं। इसे भी कह सकते हैं कि छात्र, पाठ्क्रम, विधा और अध्यापक चार सबसे महत्वपूर्ण अवव हैं। इनमें सुधार की प्रक्रिा तो अभी से प्रारंभ होनी चाहिए। विद्यार्थीयों को पूरी तरह समझना, उसकी आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक परिस्थितिों को जानना, जो ज्ञान और समझदारी लेकर बच्चा स्कूल में आता है उसका अनुमान लगाकर आगे बढ़ाना होगा। मध्यान्ह भोजन की व्वस्था के बाद भी बच्चे कुपोषित क्यों  रह जाते हैं? इसके लिए कोई उत्तरदाी नहीं है? प्रारंभिक कक्षाओं में ह सबसे अधिक आवश्क है, क्योंकि हीं पर रचनात्मकता के विकास की नींव पड़ती है, बच्चे के विचारों और संकल्पनाओं को प्रोत्साहन मिल सकता है। पाठ्क्रम में स्थानीता को अवसर मिले, अध्यापक स्वं इसका निर्धारण कर सकें और भाषागत समस्याएं न पैदा हों और ह तभी संभव है जब अध्यापक और बालकों का संबंध भी सजीव और सजग बनने के साथ निरंतर हो।

यानी इसके लिए अध्ापक-छात्र अनुपात सही हो, अध्यापक की उपस्थिति की निरंतरता में अनावश्क व्यवधान न हो! पाठ्क्रम सम के साथ और आु एवं स्तर के साथ बदलेगा। इसे स्थानीता से क्षेत्रीता, राष्ट्रीता और अंतरराष्ट्री स्तर तक धीरे-धीरे बढ़ाना होगा। ‘कौन पढ़ाए’ में अध्यापक का व्क्ततित्व संपूर्णता में समाहित हो जाता है। उसका आचार, विचार, व्वहार, सीखने की प्रवृत्ति और ललक, आत्मविश्वास तथा अपने कार् में रुचि और तन्मता जैसे पक्षों पर हर विद्यार्थी का ध्यान जाता ही है। इसीलिए शिक्षा में अग्रणी देशों में शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों को सबसे अधिक महत्व दिा जाता है। शिक्षक-प्रशिक्षकों की गुणवत्ता से ही आगे चलकर अन् सभी क्षेत्रों में गुणवत्ता का स्तर निर्धारित होता है।

भारत में इस समय शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं की स्थिति अतंत: चिंताजनक है। हां व्यापारीकरण तेजी से बढ़ा है और इससे निपटने के प्रयासों के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है। अध्यापकों की गुणवत्ता में कमी रोकी जानी चाहिए। पढ़ा वही सकता है जिसे ना सीखने में रुचि हो, जो अपने अध्यापन में परिस्थितिों के अनुसार परिवर्तन करने को तत्पर रहता हो! मौजूदा दौर में हर एक अध्यापक का प्रशिक्षण आधुनिक विधिों द्वारा होना आवश्क है। आज के संचार-तकनीकी युग में ‘कैसे पढ़ाएं’ एक अत्ंत चुनौतीपूर्ण प्रश्न बन गा है। सीखने के स्नोतों का विस्तार हुआ है। उनमें बदलाव भी आता जा रहा है। अब वही सिखा सकेगा जो स्वयं लगातार सीखता रहे। हर नई संचार तकनीक और सुविधा और उपकरण  गैजेट का उपोग लाभकारी होगा, मगर इसके उपोग के साथ संभावित दुरुपोग से अध्यापक का परिचित होना भी आवश्क होगा।

केंद्र सरकार उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी अनेक सुधार कर रही है। यदि राज्य सरकारें भी अभी से अपनी व्यवस्था चाक-चौबंद करने में लग जाएं तो निश्चित ही अगले तीन-चार वर्ष में शिक्षा के क्षेत्र में सभी को व्यापक सुधार नजर आने लगेंगे। इसके लिए अध्यापकों की नियुक्तियों को गति दी जाए, मध्यान्ह भोजन व्यवस्था को संभाला जाए और पाठ्क्रम परिवर्तन में तेजी लाई जाए, संचार एवं तकनीकी उपोग के लिए प्रेरित किा जाए। लोगों में विश्वास जगाा जाए कि स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने का हरसंभव प्रास होगा। स्कूली शिक्षा में सुधार की चर्चा पर अक्सर प्रतिक्रिा कुछ यूं होती है कि वह तो लगातार कहा जाता है, मगर स्थिति तो बद से बदतर होती जा रही है। इसे बदलने के लिए स्कूली शिक्षा को पहले सुधारना होगा तभी उच्च शिक्षा में बड़े स्तर पर गुणवत्ता सुधार संभव है।
- जगमोहन सिंह राजपूत
(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)

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