MAN KI BAAT : शिक्षा का आधार हमेशा से सजा और इनाम रहा है, घरों में और स्कूलों में भी इसी आधार पर बच्चों को शिक्षा दी जाती रही है, पर शिक्षा क्या है, इसका उद्देश्य क्या है, इसके तौर-तरीके क्या हैं, इस बारे में नई सोच, नए प्रयोग और नई दृष्टि का नितांत अभाव है, इस कारण से...............
🔴 बच्चों को मार-पीट कर पढ़ाने की आदत
शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग के लिए महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में टॉलस्टॉय फार्म नाम से एक आश्रम स्थापित किया था। टॉलस्टॉय फार्म में पढ़ने वाले बच्चों में से एक बहुत ही उपद्रवी और अनुशासनहीन था। एक दिन मजबूर होकर गांधीजी ने उसे छड़ी से मारा, पर उन्होंने बाद में लिखा कि उस बच्चे को मारते वक्त वह भीतर तक कांप गए थे। उन्होंने लिखा कि उन्हें यह अहसास हुआ कि उन्होंने बच्चे को सही करने के इरादे से नहीं, बल्कि अपने क्रोध को व्यक्त करने के लिए मारा था। इसके तुरंत बाद गांधी जी लिखते हैं कि वह बच्चा मेरा शिक्षक बन गया, क्योंकि उसने मुझे सिखाया कि मैं क्रोध करता हूं। गांधी जी के इस वक्तव्य को मैं उनके शिक्षा संबंधी गंभीरतम वक्तव्यों में से एक मानता हूं।
वास्तव में बच्चों को शारीरिक सजा देने और उसकी उपयोगिता और प्रासंगिकता क्या है? शिक्षा का आधार हमेशा से सजा और इनाम रहा है। घरों में और स्कूलों में भी इसी आधार पर बच्चों को शिक्षा दी जाती रही है। पर शिक्षा क्या है, इसका उद्देश्य क्या है, इसके तौर-तरीके क्या हैं, इस बारे में नई सोच, नए प्रयोग और नई दृष्टि का नितांत अभाव है। इस कारण से शिक्षा की एक बहुत गंभीर समस्या पैदा होती है कि विद्यार्थियों को अनुशासित कैसे किया जाए। खास तौर पर बड़ी कक्षाओं के विद्यार्थियों को। लंबे समय से विद्यार्थियों को नियंत्रित करने के लिए धमकी, जोर-जबरदस्ती, शारीरिक दंड और लालच का इस्तेमाल किया जा रहा है। बिना यह जाने और सोचे कि उसका बच्चे के मानस पर क्या प्रभाव पड़ता है और कैसे इन रास्तों को अपनाकर हम अंतत: एक भ्रष्ट और हिंसक समाज के निर्माण में जाने-अनजाने योगदान दे रहे हैं। जो बच्चा इनाम के लालच में पढ़ेगा, वह बड़ा होकर इनाम के लालच में ही अपना काम भी करेगा और बुनियादी अर्थ में भ्रष्टाचार तो यही है।
जब शिक्षा को जीवन से अलग कर दिया गया, उसे सिर्फ जीविका का माध्यम बना दिया गया, क्या तभी उसमें हिंसा और जोर-जबरदस्ती की नींव नहीं पड़ गई। बच्चे के लिए जीवन और शिक्षा अलग नहीं होते, दोनों साथ-साथ चलते हैं। अपने पर्यावरण को जानते-समझते, सीखते हुए उसके मस्तिष्क का विकास होता है और उसके परिवार का कर्तव्य होता है कि ऐसा माहौल उपलब्ध कराए, जहां वह सुरक्षा, सरलता और सहजता से चीजों को सीखे। इसमें कहीं भी हिंसा या जोर-जबरदस्ती के लिए कोई जगह नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बच्चों को एक अति सुरक्षित वातावरण में रखा जाए और उन्हें जीवन का सामना करने लायक ही नहीं छोड़ा जाए।
सार्थक संप्रेषण के सभी पहलुओं से बच्चे का परिचय जरूरी है, जिसमें किसी खतरे के आने पर चीखना, डांटना-डपटना भी शामिल है। पशु-पक्षी भी खतरे में अपने बच्चों को आगाह करते हैं। तो बिजली के सॉकेट या आग के पास जाते इंसानी बच्चे को भी तेज आवाजों का मतलब समझाना हिंसा नहीं है, न ही उसे वहां से जबरन हटाकर उसके रोने को बर्दाश्त करना क्रूरता है। जरूरत इस बात की है कि हम कोई ऐसी अथॉरिटी या सत्ता पैदा न करें, जिसके सामने बच्चे को झुकना हो। हम बच्चे के साथ-साथ सीखते हैं और दोनों जीवन की गुत्थियां सुलझाते हुए आगे बढ़ते हैं। हमारे पास कुछ ऐसा नहीं है, जो खास हो और हमें बच्चे को देना हो। मैं स्कूल जाने के ठीक पहले की उम्र में जब किसी बच्चे को देखता हूं तो सबसे बड़ा सवाल यही उठता है कि ऐसा क्या है कि हम इसे सिखा देंगे। इसकी मासूमियत के सामने हमारा समूचा ज्ञान निरर्थक ही नहीं, खतरनाक भी है! क्या हम इस बात का विशेष ध्यान रख सकते हैं कि हमारे संस्कार, भय, आदतें और ढर्रे कहीं उसमें संप्रेषित न हो जाएं। हमारे पास बस कुछ अधिक तकनीकी जानकारी जरूरी है जो हमें उसे उपयुक्त तरीके से देते रहना चाहिए। शिक्षा छात्र और शिक्षक की सहयात्रा है, जिसमें किसी विषय और जीवन दोनों के बारे में साथ-साथ सीखा जाना चाहिए।
अगर अभिभावक अपनी जिम्मेदारी को नहीं निभाते और बच्चे के अंदर समस्याएं घर करती रहें तो बड़ी कक्षा तक आते-आते अध्यापक या मां-बाप के लिए उनको संभालना ही मुश्किल हो जाता है और उसके पास एक ही विकल्प रहता है, वह है शारीरिक दंड। बच्चे या विद्यार्थी को मारपीट या डांट-धमका कर वह काबू में तो कर लेता है, लेकिन इस प्रक्रिया में शिक्षा कहीं पीछे छूट जाती है। इसका यह भी एक पहलू है कि अगर वह दंड का प्रयोग न करे तो यह विद्यार्थी पूरी कक्षा में अराजकता फैला देते हैं और पढ़ना-पढ़ाना ही मुश्किल हो जाता है। इस समस्या को बड़ी बारीकी और धैर्य से समझना होगा। इसका वास्तविक हल तो इन परिस्थितियों का सामना कर रहे शिक्षक को अपनी समझ, ज्ञान, सहनशीलता और प्रेम से खोजना होगा।
ज्यादातर शिक्षक पढ़ाने के तरीकों, विद्यार्थी के मनोविज्ञान और इस क्षेत्र में किए जा रहे शोधों के बारे में अनभिज्ञ होते हैं। जीवनयापन के साधन के तौर पर वह अध्यापन को चुन लेते हैं, उनमें शिक्षण की कम समझ होती है और अपने काम के लिए उत्कटता का भी अभाव होता है। देश में आमतौर पर व्याप्त शिक्षा प्रणाली पर भी नजर डाली जाए तो उसमें आज भी बाबा आदम के जमाने के तरीके ही आजमाए जा रहे हैं। पढ़ाई के वही पुराने तरीके हैं- रटो और परीक्षा में उगल दो। बढि़या उगल दिया तो अच्छे अंक मिलते हैं, पर कितना सीखा-कितना जाना, कितना नया करने की प्रेरणा मिली, इसका महत्व नहीं होता। कहीं सूचनाओं को रटना शिक्षा है तो कहीं शिक्षक की चापलूसी, जुगाड़ और नकल सबसे बड़ी शिक्षा है। इन हालात में अगर किसी विद्यार्थी को पढ़ने में रुचि नहीं है तो इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है? जीवन को समग्रता में समझने की कोई बात नहीं होती। अर्थ, काम, धर्म, मोक्ष में सबसे अधिक महत्व अर्थ और काम को ही दिया जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने आईआईटी मुंबई में एक भाषण में कहा था कि हमारा उद्देश्य ऐसी शिक्षा हो जिससे सकल घरेलू उत्पाद बढ़े! यही जीवनदृष्टि है और इसी का परिणाम है एक बेतरतीब, असंतुलित जीवन।
विद्यार्थी सिर्फ कुछ घंटों के लिए अध्यापक के साथ रहता है, उससे ज्यादा समय वह अपने घर-परिवार के साथ बिताता है। अगर घर के सदस्य साथ न दें तो शिक्षक के लिए बड़ा मुश्किल हो जाता है कि वह किस तरह विद्यार्थी को प्रेरित करे और सकारात्मकता से भरकर सही मार्ग पर लाए। लेकिन फिर भी वह कुछ उपायों पर विचार कर सकता है, जैसे कि काउन्सलिंग यानी बातचीत या सलाह मशविरा। यह सबसे प्रभावी तरीका है। इसके लिए विशेषज्ञ की जरूरत होती है, लेकिन अगर विशेषज्ञ न हो तो शिक्षक खुद ही मनोविज्ञान, मानव व्यवहार और असामान्य मनोविज्ञान का अध्ययन करके उन बच्चों की काउंसिलिंग कर सकता है। इसके लिए प्रतिदिन कुछ समय निश्चित करके समस्याग्रस्त बच्चों से उसे बात करनी चाहिए।
विद्यार्थी के ऐसे व्यवहार का कारण पता लगाना, फिर उसका हल खोजना काउंसलिंग का मूल उद्देश्य है। संवाद भी एक बहुत कीमती तरीका है। समस्या से पीड़ित और अनुशासनहीन बच्चों से संवाद टूट जाता है और वे सुनते ही नहीं, इसलिए उनसे संवाद नहीं बन पाता। ऐसे बच्चों को अलग-अलग कई सारे अध्यापकों के साथ उनसे संवाद स्थापित करने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसे बच्चों को खेल में लगाना भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
बच्चों की दिलचस्पी का पता लगाकर उनको उस खेल में लगाना उनको अनुशासित करने में सहायक होता है। यह भी जरूरी है कि कुछ समय के लिए उनपर पढ़ाई का दवाब कम करके उनको दूसरी गतिविधियों में लगाया जाए। ये सारे उपाय सिर्फ संकेत भर हैं।
आखिर जब एक स्पेशल एजुकेटर आक्रामक मानसिक विकलांग बच्चों को पढ़ा सकता है तो फिर अपने को शिक्षक कहने वाला इतनी आसानी से हार मानकर मारने-पीटने पर क्यों उतारू हो जाता है। शारीरिक दंड की एक स्नेहपूर्ण शिक्षा व्यवस्था में कोई जगह ही नहीं होनी चाहिए।
- चैतन्य नागर
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📌 MAN KI BAAT : शिक्षा का आधार हमेशा से सजा और इनाम रहा है, घरों में और स्कूलों में भी इसी आधार पर बच्चों को शिक्षा दी जाती रही है, पर शिक्षा क्या है, इसका उद्देश्य क्या है, इसके तौर-तरीके क्या हैं, इस बारे में नई सोच, नए प्रयोग और नई दृष्टि का नितांत अभाव है, इस कारण से...............
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