मन की बात : यूनेस्को की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में बच्चों को शिक्षा की उपलब्धता आसान हुई है, लेकिन गुणवत्ता का सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ है, स्कूल जाने वाले बच्चे भी बुनियादी शिक्षा से वंचित...............
हमारा देश विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा है, जिसमें बाल श्रम एक प्रमुख व संवेदनशील समस्या है। बचपन, मनुष्य की जिंदगी का सबसे खूबसूरत समय होता है, न किसी बात की चिंता और न ही कोई जिम्मेदारी। लेकिन यह बात सभी बच्चों के लिए सच नहीं है। कुछ ऐसे भाग्यहीन भी होते हैं, जिनका बचपन बहुत खराब होता है। भारतीय संविधान में बाल श्रम समाप्त करने तथा बच्चों के संपूर्ण विकास के लिए आवश्यक उपाय किए जाते रहे हैं, लेकिन वे सब अपर्याप्त ही रहे।
आज बाल श्रम कानून को बने हुए 29 साल हो जाने के बावजूद हमारे देश में सर्वाधिक बाल मजदूर हैं। डर इस बात का है कि निवेश और बाजार के लिए अनुकूल वातावरण बनाते-बनाते कहीं बाल श्रम एक स्वीकार्य व्यवस्था न बन जाए! असल में हमने कभी भी मन से यह तय नहीं किया कि हम बच्चों को मजबूरी और बदहाली के श्रम से मुक्त कराकर उन्हें शिक्षा के साथ जोड़ें। सवाल केवल इतना ही नहीं है कि सभी बच्चों को स्कूल में होना चाहिए, वास्तव में इन बच्चों को अपने व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए किसी भी परतंत्रता से मुक्त होना चाहिए। उस परतंत्रता से, जहां हम तय करते हैं कि जिंदगी में सुबह और शाम उन्हें क्या करना है और क्या नहीं।
बाल श्रम का मूल कारण गरीबी है। गरीबी के अलावा प्रभावी शिक्षा व्यवस्था का अभाव, मां बाप की संकीर्ण मानसिकता व जागरूकता की कमी भी बाल श्रम को बढ़ावा देते हैं। मां-बाप अपने बच्चे को औपचारिक शिक्षा दिलाने के बजाय कम उम्र में कार्य कौशल सिखाना ज्यादा लाभप्रद समझते हैं। जिससे वो अपने परिवार की मदद कर सकें। बाल मजदूरों की स्थिति में सुधार के लिए सरकार ने 1986 में चाइल्ड लेबर एक्ट बनाया, जिसके तहत बाल मजदूरी को एक अपराध माना गया तथा रोजगार पाने की न्यूनतम आयु 14 वर्ष कर दी। कोई भी ऐसा बच्चा, जिसकी उम्र 14 वर्ष से कम हो और वह जीविका के लिए काम करे, वह बाल मजदूर कहलाता है। गरीबी, लाचारी और माता-पिता की प्रताड़ना के चलते ये बच्चे बाल मजदूरी के इस दलदल में धंसते चले जाते हैं।
आज दुनिया भर में 215 मिलियन ऐसे बच्चे हैं, जिनकी उम्र 14 वर्ष से कम है। इन बच्चों का समय स्कूल में कॉपी-किताबों और दोस्तों के बीच नहीं, बल्कि होटलों, घरों, उद्योगों में बर्तनों, झाड़ू-पोंछे और औजारों के बीच बीतता है। देश में सामाजिक कल्याण व्यवस्था का अभाव और आय के वैकल्पिक स्रोतों की कमी के कारण भी मां-बाप अपने बच्चे से मजदूरी करवाने के लिए मजबूर हैं। जरा सोचिए कि एक 7 साल के बच्चे के मन का अभी विकास हो ही रहा है और एक दिन वह देखता है कि उसके परिवार के पास आजीविका का कोई स्थाई साधन नहीं है। जब उसकी मां बीमार पड़ती है तो उन्हें दवाइयों और जांचों पर होने वाले खर्च के जुगाड़ के लिए अपना सबकुछ बेच देना पड़ता है। ऐसे में जब पेट भरने के लिए खाना चाहिए होता है, तब बच्चे भी घर से बाहर निकलते हैं एक जिम्मेदारी लेकर।
यूं तो कई कारण होते हैं, जो बच्चों को बाल श्रम में धकेलते हैं। पिता की शराब की लत से लेकर फिल्मों की कहानियों तक से प्रभावित होकर बच्चे घर से भाग जाते हैं। ये समाज का अपने आप में एक ऐसा समुदाय बन जाते हैं, जिन्हें हम संरक्षण देने और समझ पाने में नाकाम रहे हैं। उनके मुताबिक, हम इस दुनिया को बनाने में कामयाब नहीं हो पाए। इसी तरह गांवों में जब आजीविका नहीं बचती है और परिवारों को अपनी उम्मीदों को समेट कर बड़े शहरों की तरफ पलायन कर जाना पड़ता है, तब श्रम करने वाले इस समुदाय का आकार और बढ़ता जाता है। पलायन करने वाले यह सोचकर शहर की तरफ नहीं चलते हैं कि वहां उनका तिरस्कार होगा। उनका गूढ़ विश्वास होता है कि शहर में रहने को ठिकाना और काम तो मिल ही जाएगा। वे यह कभी नहीं सोचते कि बच्चे का टीकाकरण होगा और उसे एक स्कूल में दाखिला मिलेगा। ये तो उनके हिसाब से विशालकाय सपने हैं। किसानों का कर्जे में फंसना, जमीनों का देश के विकास के नाम पर अधिगृहीत कर लिया जाना, ये सबकुछ मिल कर बच्चे को श्रम करने के लिए मजबूर कर देते हैं।
1 Comments
📌 मन की बात : यूनेस्को की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में बच्चों को शिक्षा की उपलब्धता आसान हुई है, लेकिन गुणवत्ता का सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ है, स्कूल जाने वाले बच्चे भी बुनियादी शिक्षा से वंचित...............
ReplyDelete👉 http://www.basicshikshanews.com/2016/02/blog-post_10.html