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मन की बात : हिंदी की विभूति थे आचार्य शिवपूजन सहाय की पुण्यतिथि है आज, कहा जाता है साहित्य को पढ़ने का यह तरीका नहीं है। जैसे सरोवर में आप स्नान करते हैं, उसके कई चरण हैं। पहले चरण में आप थाह-थाह करके आगे बढ़ते.......

मन की बात : हिंदी की विभूति थे आचार्य शिवपूजन सहाय की पुण्यतिथि है आज, कहा जाता है साहित्य को पढ़ने का यह तरीका नहीं है। जैसे सरोवर में आप स्नान करते हैं, उसके कई चरण हैं। पहले चरण में आप थाह-थाह करके आगे बढ़ते.......

आचार्य शिवपूजन सहाय स्मृति समारोह का प्रयोजन क्या है?- शिवपूजन सहाय की जन्मशती हमने 1993 में मनाई। साहित्य अकादमी ने भी बनारसीदास चतुर्वेदी के साथ शिवपूजन सहाय पर एक आयोजन किया था। उसी वर्ष हमने परिवार के साथ एक न्यास की स्थापना की। शिवपूजन सहाय न्यास द्वारा उसके बाद कई कार्यक्रम हुए। न्यास के कुछ उद्देश्य हैं। इसमें दो प्रमुख हैं। पहला, शिवपूजन सहाय के साहित्य का प्रचार-प्रसार करना और दूसरा, वार्षिक या द्विवार्षिक एक बड़ा आयोजन- उनकी जयंती 9 अगस्त या पुण्यतिथि 21 जनवरी के अवसर पर। मौसम के लिहाज से 21 जनवरी ठीक पड़ती है। 2014 में हमने एक आयोजन यहां लखनऊ में किया था। आज के आयोजन में आचार्य शिवपूजन सहाय स्मारक व्याख्यान प्रो. मैनेजर पांडेय का ‘मुगल बादशाहों की हिंदी कविता’ विषय पर होगा। इसी क्रम में शिवपूजन सहाय के निबंध साहित्य पर डॉ. भृगुनंदन त्रिपाठी व्याख्यान देंगे और ‘श्रीमती बच्चनदेवी साहित्यगोष्ठी सम्मान प्रसिद्ध हिंदी-मैथिली लेखिका उषाकिरण खान को दिया जाएगा। समारोह की अध्यक्षता हिंदी संस्थान के अध्यक्ष उदय प्रताप सिंह करेंगे।


 बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का निदेशक रहते हुए शिवपूजन सहाय को 1954 में डेढ़ हजार रुपए का वयोवृद्ध साहित्य पुरस्कार आचार्य नरेंद्र देव द्वारा दिया गया। इसी राशि से मेरे पिता ने मेरी माता के नाम पर एक सम्मान और गोष्ठी शुरू की। 1954 से शुरू हुई गोष्ठी में राजर्षि टंडन, राहुल सांकृत्यायन, मैग्रेगर, वुडलैंड मैकल, भगवतीप्रसाद बाजपेयी, भगवतीचरण वर्मा, चतुरसेन शास्त्री आदि बड़े विद्वानों ने इसमें व्याख्यान दिए। यह गोष्ठी तीन-चार दशकों तक चलती रही। आगे चलकर न्यास ने जब इस गोष्ठी को अपने हाथ में लिया तो हम लोगों ने सम्मान भी शुरू किया।शिवपूजन सहाय के जीवन और साहित्य के बारे में संक्षिप्त जानकारी दीजिए।- आज साहित्य को विश्वविद्यालयों में जितना जरूरत होती है, उतना ही पढ़ाया जाता है। साहित्य को पढ़ने का यह तरीका नहीं है। जैसे सरोवर में आप स्नान करते हैं, उसके कई चरण हैं। पहले चरण में आप थाह-थाह करके आगे बढ़ते हैं। जब गले तक पहुंच जाते हैं तो उसके पानी में आप तैरने लगते हैं। साहित्य-सरोवर में इसी प्रकार का प्रयास होना चाहिए। 


साहित्य-सरोवर में सभी रचनाकारों का समजल है। उसमें जाकर तैरने का आनंद लेना चाहिए। शिवपूजन सहाय ने 1913 में लिखना शुरू किया। उनकी विवशता थी। साहित्य के प्रति बहुत प्रेम होने के बावजूद रोजी-रोटी के कारण संपादन की ओर शिवपूजन गए। वे द्विवेदी युग के बाद आनेवाले लेखक और पत्रकार हैं। उन्होंने भी अपने समय के साहित्यकारों की भाषा का परिष्कार किया। उन्होंने भाषा पर बहुत काम किया। अंतिम तेरह वर्षों में उन्होंने बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की पत्रिका का संपादन नलिन विलोचन शर्मा के साथ किया। उसका गद्य मानक रूप है। जैनेंद्र, अज्ञेय जैसे लेखकों के लिए यह गद्य कसौटी की तरह था। उन्होंने प्रारंभिक काल में कुछ कहानियां और उपन्यास लिखे। ‘देहाती दुनिया’ नामक उपन्यास उन्होंने 1922 में शुरू किया, जो 1926 में प्रकाशित हुआ। उस समय प्रेमचंद के दो-तीन उपन्यास उर्दू और फिर बाद में हिंदी में प्रकाशित हुए। प्रेमचंद का हिंदी में प्रकाशित होनेवाला ‘रंगभूमि’ (1924) शिवपूजन सहाय के संपादन में ही आया था। ‘देहाती दुनिया’ एक प्रतिनिधि रचना है। हालांकि उसमें भोजपुर अंचल के गांवों का चित्रण है। इतना यथार्थपरक चित्रण गांवों का उस समय के किसी उपन्यास में नहीं था। 1930 के बाद शिवपूजन बजाप्ता पत्रकारिता में आ गए थे। इस दौरान उन्होंने ‘ग्राम सुधार’ नामक किताब लिखी। इसमें उनके गांव के बारे में विचार उल्लिखित हैं। बाद में उन्होंने संस्मरण लिखे। सौ-डेढ़ सौ संस्मरणों में उन्होंने अपने साथ रहने वाले तमाम साहित्यकारों के संवेदनात्मक संस्पर्श को दर्ज किया है। इनमें उस युग का पूरा चित्र मिलेगा।


समकालीन रचनाकारों के साथ शिवपूजन सहाय के रिश्ते कैसे थे?- उस युग में साहित्यकार एक-दूसरे के साथ बेहद संवेदनात्मक ढंग से जुड़े होते थे। प्रेमचंद से उनकी भेंट 1920 में कलकत्ते में हुई थी। उस समय शिवपूजन सहाय कलकत्ते में मतवाला का संपादन करते थे। मतवाला ने तब बहुत शोहरत हासिल की। इसके बाद अप्रैल, 1924 में वे लखनऊ आ गए। अमीनाबाद में रहते थे। सिंतबर में यहां शिया-सुन्नी दंगा हो गया। यहां फिर से प्रेमचंद से उनका मिलना हुआ। ‘माधुरी’ के संपादन के लिए दुलारेलाल भार्गव ने उन्हें बुलाया था। अक्टूबर, 1924 में प्रेमचंद की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ इसी माधुरी में छपी। इसकी भाषा का संपादन भी शिवपूजन ने किया था। इसीलिए ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘रंगभूमि’ की भाषा में मेल दिखाई देगा। यहां से शिवपूजन काशी गए। वहां 1935-36 तक बाबूजी का प्रेमचंद के साथ रोज उनके ‘सरस्वती’ प्रेस में उठना-बैठना होता था। निराला के साथ उनके कलकत्ते से ही संबंध थे। उनके साथ बाबूजी के प्रगाढ़तम संबंध थे। शिवपूजन सहाय का प्रांरभिक जीवन कैसा रहा?- बाबूजी का जन्म बक्सर जिले में हुआ था। पिता आरा के जमींदार के तहसीलदार थे। मध्यमवर्गीय परिवार था। आरा में उनकी पढ़ाई हुई। दसवीं कक्षा तक उर्दू-फारसी पढ़ी। दादा जी की इच्छा थी कि वे हिंदी साहित्य पढ़ें। इसी कारण वे हिंदी की ओर मुड़े। आरा में नागरी प्रचारिणी सभा थी। वहां पर स्थानीय साहित्यकारों के साथ मेलजोल बढ़ा। आगे की पढ़ाई के लिए वे बनारस आ गए। पढ़ाई के साथ-साथ कचहरी में कातिब यानी नकल नवीस की नौकरी भी करने लगे। असहयोग आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय स्कूल में पढ़ाना शुरू किया। बाद में कलकत्ता चले गए। वहां पर ‘मारवाड़ी सुधार पत्रिका’ में संपादक हो गए। यह उनका पहला संपादन था। यह पत्रिका महादेव प्रसाद सेठ के प्रेस से छपती थी। महादेव प्रसाद उन्हें ‘मतवाला’ के संपादक मंडल में ले आए। 


इस बीच में दो पत्नियों का देहांत हो चुका था। 1928 में जब बाबूजी काशी में थे, तब मेरी माता जी बच्चन देवी से विवाह हुआ। यहीं पर जागरण का संपादन किया। बड़ी दीनता की कथा है, मेरे बाबूजी की। तमाम लोगों ने उनसे काम निकाला। संपादन कराया। साहित्य भंडार में रहते हुए पुस्तकों के प्रूफ देखते थे। 1940 में उन्हें आरा बुलाया गया। 1941 में पटना में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन का 17वां अधिवेशन हुआ। इसमें बाबूजी को सभापति बनाया गया। इसी समय वे छपरा में प्रोफेसर हो गए। पटना में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की स्थापना जब हुई तो इसमें उन्हें निदेशक बनाकर बुलाया गया। 1963 में देहांत तक बाबूजी यहां रहे। इस दौरान उन्होंने बहुत काम किया। उन्हें पद्मभूषण भी मिला।

        -लेख रविकांत

लखनऊ में आज गुरुवार को आयोजित होनेवाले आचार्य शिवपूजन सहाय स्मृति समारोह के तहत आचार्य शिवपूजन सहाय स्मारक व्याख्यान प्रो. मैनेजर पांडेय का ‘मुगल बादशाहों की हिंदी कविता’ विषय पर होगा। इसी क्रम में शिवपूजन सहाय के निबंध साहित्य पर डॉ. भृगुनंदन त्रिपाठी व्याख्यान देंगे और ‘श्रीमती बच्चनदेवी साहित्यगोष्ठी सम्मान प्रसिद्ध हिंदी-मैथिली लेखिका उषाकिरण खान को दिया जाएगा। समारोह की अध्यक्षता हिंदी संस्थान के अध्यक्ष उदय प्रताप सिंह करेंगे। इसी आयोजन के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत है शिवपूजन जी के पुत्र व सुपरिचित साहित्यकार मंगलमूर्ति से रविकांत की बातचीत...

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  1. 📌 मन की बात : हिंदी की विभूति थे आचार्य शिवपूजन सहाय की पुण्यतिथि है आज, कहा जाता है साहित्य को पढ़ने का यह तरीका नहीं है। जैसे सरोवर में आप स्नान करते हैं, उसके कई चरण हैं। पहले चरण में आप थाह-थाह करके आगे बढ़ते.......
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