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मन की बात (Man Ki Baat) : एक स्कूल की कहानी में क्या हो सकता है, बच्चे, शिक्षक और स्कूल की चहारदीवारी!!!!!!!!!!

मन की बात (Man Ki Baat) : एक स्कूल की कहानी में क्या हो सकता है, बच्चे, शिक्षक और स्कूल की चहारदीवारी!!!!!!!!!!

एक स्कूल की कहानी में क्या हो सकता है। बच्चे, शिक्षक और स्कूल की चहारदीवारी! ऊपर आसमान और नीचे पंछी, कीट पतंगे, जल जंगल और जमीन। स्कूल की बात की जाए तो यहाँ चन्‍द कमरे, खेल का मैदान। कमरों में दीवारों पर पोस्टर्स, बोर्ड, फर्श पर बिछायत जहाँ बच्चे बैठते हैं। एक-दो कुर्सी और टेबल जो शिक्षक-शिक्षिका के लिए होती है। अब इस व्यवस्था के चलते बच्चों कक्षा को अगर जीवंत बना सकता है तो वह ‘शिक्षक’ है।

मप्र के खरगोन जिले के विकास खण्‍ड कसरावद के बाजोटपुरा प्राथमिक स्कूल की यात्रा काफी दिलचस्प रही। एक बार फिर से बच्चों ने यह साबित किया कि उनको मौका मिले तो वे बहुत कुछ कर सकते हैं। मौका मिले तो वे बहुत कुछ सीख सकते हैं। आखिर वे भी तो ऊर्जा और उमंग से लबरेज हैं। उनके पास भी तो तेज-तर्रार इंद्रियाँ  हैं। हम वयस्कों की इंद्रियाँ तो बोथरी हो जाती हैं उनकी तो नई-नवेली ही हैं । बच्चों को इन इंद्रियों का इस्तेमाल शुरुआती शिक्षा में आवश्यक रूप से करने के भरपूर मौके दिए जाने चाहिए।


ऐसे ही एक स्कूल में जाने का मौका मिला। खुली वादियाँ... चारों ओर हरियाली की चादर बिछी हुई...। गेरूए रंग से रंगा हुआ प्राथमिक स्कूल बाजोटपुरा उस गाँव में अलग ही दीखता है। गेट के अन्‍दर उबड़-खाबड़ मैदान और एक भवन जिसमें कुछ कमरे। हम अन्‍दर घुसे ही थे कि बच्चों की किलकारियों की गूँज सुनाई दी। शिक्षिका श्रीमती शाईन खान की नजर हम पर पड़ी और वे कमरे के बाहर आ गईं। अभिवादन के बाद वे हमें अपनी कक्षा में ले गईं जहाँ उनकी टेबल पर किताबें-कापियाँ और कुछ रजिस्टर रखे हुए थे। कमरे में कुल जमा छह बच्चे जिनमें से चार लड़कियाँ और दो लड़के थे। यह कक्षा पाँचवी है। पास के ही कमरे में चौथी कक्षा लगती है।

श्रीमती खान ने बच्चों को कुछ अँग्रेजी का कार्य दिया हुआ था। अब वे पर्यावरण अध्ययन पर काम करने वाली थीं। कक्षा पाँचवी का पहला पाठ पूरा हो चुका था। दूसरा पाठ हमारे शरीर के आंतरिक अंग का कुछ हिस्सा वे पढ़ा चुकी थीं। कक्षा  ‘आमाशय’ तक पहुँच चुकी थी। आमाशय का चित्र बनवाया जा चुका था। हृदय की चर्चा कुछ हद तक हो चुकी थी। कक्षा पाँचवी के बच्चों को यह बात पता थी कि हृदय एक मिनट में 72 बार धड़कता है। हृदय के बारे में यह जानकारी पुस्तक में दी गई थी। मैंने शिक्षिका से पूछा कि क्या यह सही है कि एक मिनट में हृदय 72 बार धड़कता है। शिक्षिका ने कहा कि पुस्तक में यही लिखा हुआ है।

हालाँकि बच्चे इतना बता पा रहे थे कि हमारे शरीर में हृदय कहाँ स्थित है। वे बता रहे थे कि हमारी छाती में बाँई ओर हृदय होता है। स्पष्ट है कि शिक्षिका ने बच्चों को बेहतरी से यह बताया था कि हृदय कहाँ पाया जाता है। वैसे श्रीमती खान आत्मविश्वास से लबरेज शिक्षिका लगीं। हमने एक बार फिर से पूछा कि क्या वाकई हृदय एक मिनट में 72 बार धड़कता है? क्या इसको हम जाँच सकते हैं? आखिर हम किताब में लिखे पर भरोसा क्‍यों करें। इसे जाँचने की कवायद करना ही प्रगतिशील शिक्षा का अहम पहलू है।

गतिविधि: दिल की धड़कन बनाम लब-डब को सुनने का आनन्‍द

हमने इसको लेकर कुछ गतिविधियाँ तय कीं। पहले यह तय किया कि हम हृदय की धड़कन सुनते हैं। सबसे पहल एक बच्चे विशाल की धड़कन हमने सुनी। फिर शिक्षिका से पूछा कि क्या आप हृदय की धड़कन सुनना चाहेंगी। कक्षा तीसरी तक के बच्चों को पढ़ाने वाली शिक्षिका उषा त्रिवेदी भी  आ चुकी थीं। दोनों शिक्षिकाओं ने भी विशाल की धड़कन सुनी। हम हृदय से दिल तक का सफर तय कर चुके थे। अब हम हृदय के बदले दिल कहना ज्यादा मुनासिब समझ रहे थे। वैसे दिल की धड़कन को सुनना हम सभी के लिए एक अनोखा अनुभव था। कक्षा के प्रत्येक बच्चे ने एक- दूसरे की धड़कन को सुना। इतना ही नहीं एक शिक्षिका ने दूसरी शिक्षिका की धड़कन को सुना। वैसे हमने एक बात और देखी कि बच्चों के दिल की धड़कन ज्यादा साफ थी। उसमें एक तरह की खनक थी, बनिस्बत कि हम वयस्कों के। मैंने अपने साथी अर्पित की दिल की धड़कन में वह खनक नहीं सुनी जो विशाल और दीपक नामक बच्चों के दिल की आवाज में थी। और यही अनुभव अर्पित का था जब वह मेरे दिल की धड़कन सुन रहा था। तो अब हम दिल की धड़कन को महसूस कर पाए थे।

अब हमने सोचा कि क्यों न दिल की धड़कन के बारे में जो कुछ कहा गया है उसे हम खुद गिनकर देखें और परखें।

कैसे नापें धड़कन

दिल धड़कता है तो एक साथ दो आवाज सुनाई देती हैं। एक हल्की और एक थोड़ी भारी। इन दोनों को मिलाकर एक धड़कन कहा जाता है। तो एक मिनट में यह जितनी बार महसूस हो यही एक मिनट में धड़कन की संख्या होगी।

बारी-बारी से सभी बच्चों की दिल की धड़कन सुनी गई। जो धड़कन गिनी गईं उसे बोर्ड पर लिखा गया। जाहिर है कि धड़कनों की संख्या किताब में लिखी गई से एकदम अलग है।

बच्चों के अलावा हम चार लोगों दो शिक्षिकाएँ, अर्पित और मेरे दिल की धड़कनें भी कहीं अधिक ही थीं।

बच्चों के साथ चर्चा हुई कि क्‍या हुआ होगा? चर्चा से जो समझ में आया कि वह यह कि एक तो गिनती में भूल-चूक हो सकती है, दूसरा धड़कन सुनने में गलती हो सकती है, तीसरा समय नोट करने में गलती हो सकती है।

बोर्ड पर लिखे आँकड़ों के आधार पर बच्‍चों से पूछा कि किसकी धड़कनें सबसे ज्यादा हैं। इस पर बच्चों ने जवाब दिया कि सबसे ज्यादा 111 धड़कनें कालू राम की और सबसे कम 76 खान मैडम की हैं। बच्चे इन धड़कनों को कम से अधिक के क्रम में या कि अधिक से कम के क्रम में व्यक्त कर पा रहे थे। बेशक, तालिका पढ़ने का अभ्यास था बच्चों के लिए। यह भी कि बच्चों को अगर इस प्रकार के मौके दिए जाएँ तो खुद-ब-खुद करने की चेष्टा करते हैं।

एक और गतिविधि की गई। हाथ की नब्ज या नाड़ी को धड़कते हुए महसूसना। सभी ने हाथ की नाड़ी को महसूसा। सभी बच्चों की नब्ज एक मिनट में कितनी धड़कती है इसे भी मापा गया। एक सवाल किया गया कि शरीर में और कहाँ-कहाँ नाड़ी महसूस की जा सकती है। इस पर बच्चों और वयस्कों से जवाब आए- कपाल पर, कनपटी के दोनों ओर, गर्दन के बाजू में आदि। आखिर यह भी तो शरीर को जानने की कवायद ही है।

धड़कन महसूसने का उपकरण

वैसे पुस्तक में दिल की धड़कन को महसूसने का उपकरण दिया गया है। जिसे एक कीप और नली की मदद से अमूमन बनाया जाता है। हमने भी एक उपकरण बनाने की कोशिश की। प्लास्टिक की खाली बोतल का ऊपरी एक चौथाई हिस्सा काटकर कीपनुमा बन गया। इसे अगर सीने पर बाँईं ओर रखाकर सुना जाए तो धड़कनें सुनाई देती हैं। हालाँकि एक नली होती तो और बेहतर बनता। सभी बच्चों ने इस उपकरण से धड़कनों को महसूसा।

साँस का गणित

पाठ्यपुस्तक में एक गतिविधि दी गई है। एक मिनट में हम कितनी बार साँस लेते हैं, इसे जानना। दिलचस्प बात यह है कि पुस्तक में इस बारे में कुछ लिखा नहीं गया कि एक मिनट में हम कितनी बार साँस लेते हैं।

इस गतिविधि को भी किया गया। सबसे पहले तय किया गया कि साँस कैसे गिनेंगे। इस बारे में चर्चा की गई कि हम सामान्‍य तौर पर जो साँस लेते हैं उसी को गिनना है। यानी कि साँस लेने की प्रक्रिया को जान-बूझकर कम या ज्यादा नहीं करना है।

हम एक साँस उसे मानेंगे जिसमें साँस ली और छोड़ी। पर हम साँस को कैसे महसूसेंगे? इसका सबसे बेहतर तरीका यह है कि हमारी उँगलियों का पिछला हिस्सा यानी कि नाखूनों वाले हिस्से को नाक के पास रखेंगे। दरअसल, यह हिस्सा काफी नाजुक और संवेदनशील होता है बनिस्बत हथेली वाले हिस्से के।

सभी बच्चों ने साँस को गिना। जो आँकड़े आए वे 18 से 40 के बीच थे। बातचीत यह हुई कि यहाँ भी हमने कुछ गलतियाँ की होगी। बहरहाल, साँस गिनना महत्वपूर्ण है। न कि गलतियाँ निकालना। हाँ, गलतियाँ क्यों हो रही हैं उस पर बातचीत तो होनी ही चाहिए। कक्षा में बातचीत हुई मगर यह एक सौहार्दपूर्ण माहौल में थी। कहीं कोई भय और आंतक का साया नहीं था। 
कालूराम शर्मा और अर्पित सोनी, अज़ीम प्रेमजी फाउण्‍डेशन, खरगोन, मप्र
     सौजन्य : teachersofindia

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  1. 📌 मन की बात (Man Ki Baat) : एक स्कूल की कहानी में क्या हो सकता है, बच्चे, शिक्षक और स्कूल की चहारदीवारी!!!!!!!!!!
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