मन की बात : प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक विद्यालयों में सीखने सिखाने की प्रक्रिया से जुड़ा.......
एक लम्बे अरसे से प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक विद्यालयों में सीखने सिखाने की प्रक्रिया से जुड़ा हूँ । छह प्राथमिक विद्यालयों और एक उच्च प्राथमिक विद्यालय में लम्बे समय तक शिक्षण का कार्य भी किया। साथ ही बहुत से सरकारी, गैर सरकारी विद्यालयों में समय-समय पर जाने का अवसर भी मिला। इस दौरान की कई बातें हैं जो मन में खटकती रहीं । कई बार शिक्षकों से इन पर चर्चा भी हुई और कई बार सम्बन्धों के चलते बात भी नहीं हो पाई। इनमें वे विद्यालय भी हैं जिनमें मैंने खुद पढ़ाया, उनमें कुछ ऐसी सामान्य बातें हैं जिनको अमल में लाकर बेहतरी की ओर बढ़ा जा सकता है।
प्रार्थना संगीतमय हो
संगीत के लिए तो हमारे विद्यालयों में सिर्फ इतना स्थान बचता है कि राष्ट्रीय पर्वों पर कोई देशभक्ति गीत या कोई कविता और बहुत हुआ तो स्थानीय गीत दो चार दिन की तैयारी के साथ गा दिया जाए। मुझे खुद भी बहुत बाद में समझ आया कि प्रार्थना सत्र को संगीतमय बनाया जाए तो मजा आ जाए। अब हमारे विद्यालय में प्रार्थना सत्र में सभी लोग जमीन में बैठकर प्रतिभाग करते हैं। साथ ही ढोलक, मंजीरे, ढपली आदि का खूब प्रयोग करते हैं। हम पाते हैं कि हमारी प्रार्थनाएँ, गीत, भजन संगीतमय हो गए हैं। हम उनका भरपूर आनन्द ले पाते हैं। मैं खुद गीत नहीं गा पाता था, ढोलक नहीं बजा पाता था। मैंने अभ्यास किया और आज मैं अपने बच्चों को सिखा लेता हूँ। इसका परिणाम यह भी है कि हमारे बहुत से बच्चे अच्छी ढोलक बजाते हैं और बहुत से सुरमयी गीत गाते हैं।
कुर्सियां बच्चों को शिक्षक से दूर करती हैं
शिक्षा का एक बड़ा कार्य समाज में बढ़ रही दूरियों को कम करने का भी है। मुझे बार बार महसूस हुआ कि बच्चे जमीन पर बैठें और शिक्षक कुर्सी पर इससे ज्यादा दूरी और क्या हो सकती है? मैं अपने साथियों से यह बात करता रहा कि कुर्सी आराम का और दूरी का कारण न बने। मैं ऐसा नहीं कहता कि कुर्सी रखें ही न, पर वो कुर्सी जो आपको बच्चों के साथ बैठने से रोके उसको हटा देना चाहिए। मैंने महसूस किया कि जमीन में बैठने पर बच्चे गले में लटकने लगे। मुझे यह भी समझ में आया कि जब मेरी बेटी मेरे गले में लटकती है तो मैं आनन्दित होता हूँ। मुझे उसकी यह हरकत अनुशासनहीनता नहीं लगती तो मेरे विद्यार्थी मेरे गले में क्यों नहीं लटक सकते? पर ये तभी सम्भव हो पाया जब मैं ज्यादा वक्त जमीन पर बच्चों के साथ बैठने लगा।
बैंच आरामदायी नहीं है
बहुत से विद्यालयों की डिमांड सूची में मैने देखा कि वे विद्यालय के लिये बैंच बनवाना चाहते हैं और कई विद्यालयों ने तो बनवाए भी हैं। कम से कम प्राथमिक स्तर पर तो मैंने यह पाया कि बच्चे इनमें आराम से नहीं बैठ पाते। न उनके लिए लिखने में आराम, न बस्ता रखने में और न बार-बार अन्दर बाहर जाने में। मैंने बैंच पर बैठे बच्चों की जकड़न को करीब से देखा है। जमीन में एक अवस्था में थकान होने पर आसन बदला जा सकता है, लेटा जा सकता है, पैर पसारे जा सकते हैं। बैंच पर बैठने में ऐसा सम्भव नहीं है। बहुत अधिक हो तो लिखने के लिए छोटे-छोटे जमीनी मेज बनाए जाएँ जो कि आरामदायक हों।
शिक्षक बच्चों के खेलों से दूर
कक्षा शिक्षण के दौरान बच्चों और शिक्षक में कई बार एक निश्चित दूरी हो जाना स्वाभाविक होता है। पर जब बच्चे खेल रहे होते हैं कुछ कर रहे होते हैं तो शिक्षक और बच्चे एक दूसरे के करीब सहजता से आते हैं। बच्चों को अच्छा लगता है जब शिक्षक उनके खेल में खिलाड़ी के रूप में शामिल होता है। लेकिन ज्यादातर शिक्षक या तो शरमाते हैं या उनको लगता है कि फिर बच्चों में और शिक्षक में क्या फर्क रह गया।
बच्चों को जिम्मदारी देनी पड़ेगी
शिक्षा का एक मुख्य लक्ष्य यह भी है कि शिक्षार्थी जिम्मेदार बनें। अपने विद्यालयों में कम से कम ऐसा होते नहीं दीखता। बच्चों को उन सब चीजों से दूर रखा जाता है जिनकी उनको ज्यादा जरूरत है। हम बच्चों को सिर्फ रजिस्टर लाने, शिक्षक के लिए पानी का गिलास लाने, सफाई की जिम्मेदारी तक ही जिम्मेदार बनाने का काम करते हैं जबकि हमारे पास अपार सम्भावनाएँ हैं। विद्यालय की ज्यादातर जिम्मेदारी बच्चों पर छोड़ दी जाए। बच्चे शिक्षक के साथ मिलकर तय करें कि विद्यालय में क्या होना चाहिए, कैसी व्यवस्थाएँ होनी चाहिए। किसी दिन शिक्षक न भी आ पाए तो बच्चे खुद कैसे व्यवस्थाएँ संभालें। हमें इसके लिये हिम्मत जुटाने की जरूरत है। बच्चे जब स्कूल की व्यवस्थाएँ सम्भालेंगे तो वे बहुत सी ऐसी चीजें सीखेंगे जो उनके आने वाले समय में काम आएँगी, क्योंकि अभी उनको घर पर भी जिम्मेदारी लेने के अवसर नहीं मिल पा रहे हैं। और यही आगे चलकर हम सबकी कमजोरी बन जाती है।
कुछ क्रियाकलाप बेकार के
विद्यालयों में बहुत से क्रियाकलाप हम ऐसे करते हैं या करवाते हैं जिनको न भी करें तो क्या फर्क पड़ेगा। प्रार्थना को खड़े-खड़े करना क्यों अनिवार्य बनाया गया? शायद इसलिए कि जमीन में बैठने से शिक्षकों के कपड़े खराब न हो जाएँ। तो मेरा सुझाव है कि शिक्षक अपने लिये गद्दी बना ले। बहुत से विद्यालय रोज प्रार्थना के समय प्रतिज्ञा करवाते हैं यानि रोज कसम खिलवाते हैं। क्या जरूरत, अव्वल तो वे बोलते ही इस ढंग से हैं कि कुछ समझ नहीं आता दूसरे उसका पालन। अगर बात समझ में आ जाए तो रोज कसम खाने की जरूरत नहीं और यदि रोज कसम खा भी रहे हैं तो इसका मतलब हम वो सब कर नहीं पा रहे हैं। इसी प्रकार विद्यालयों में होने वाली पी0टी0 भी, बच्चों से पैर छुआना भी और भी न जाने किस-किस प्रकार के क्रियाकलाप ।
ऐसी अन्य कई बातें हैं जो मुझे किसी सुझावकर्ता या निरीक्षणकर्ता के तौर पर नहीं बल्कि एक सक्रिय शिक्षक के रूप में अटपटी सी लगती रहीं। आपके संज्ञान में भी स्कूलों में ऐसी ही बहुत सारी बातें होंगी जो आपको असहज करती होंगी कृपया अवश्य साझा करें।
-संजय रावत, अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, पुरोला, उत्तरकाशी, उत्तराखण्ड
साभार : टीचर्स ऑफ इण्डिया
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