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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

बच्चों की सेहत बनाने में गुरूजी "बीमार" : बिना बजट दूध व कोफ़्ता-चावल से मास्टर साहब को हर माह ढाई से तीन हजार का लग रहा चूना ।

बच्चों की सेहत बनाने में गुरूजी "बीमार" : बिना बजट दूध व कोफ़्ता-चावल से मास्टर साहब को हर माह ढाई से तीन हजार का लग रहा चूना ।

उन्नाव : शासन परिषदीय विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्र छात्राओं की सेहत सुधारने के लिए मिड डे मील को गुणवत्तापरक बनाने में जुटा हुआ है। कभी मीठी नमकीन दलिया तो कभी दूसरा कोई स्वाद और सेहत बनाने वाले आहार थाली तक परोसे जा रहे हैं। शासन ने मेन्यू में संशोधन करते हुए प्रत्येक बुधवार को भोजन में मिलने वाले कोफ्ता चावल से पहले दूध पिलाने की व्यवस्था लागू की है।

 छात्रों की सेहत बनाने के लिए यह कदम तो अच्छा है पर सामग्री की लागत को देखते हुए कनवर्जन कास्ट में कोई इजाफा नहीं किया। ऐसे में बच्चों की थाली तैयार करने में मास्टर साहब की सेहत जरूर बिगड़ने लगी है कनवर्जन कास्ट में इजाफा करने के बाद भी खाना खिलाने में गुरुजी को प्रति माह ढाई से तीन हजार रुपये का झटका लग रहा है। यदि वह उसमें लापरवाही करते हैं तो उनकी नौकरी पर तलवार लटकते देर नहीं लगती। बात यहीं पर खत्म नहीं होती, दोपहर के भोजन के जिम्मेदार ग्राम प्रधान भी अब किसी खर्च से खुद को दूर कर किनारा कर लिया है। यदि आंकड़ों पर ही गौर किया जाए तो 100 बच्चों का भोजन सप्ताह के सभी छह दिन तैयार किया जाता है तो उसमें लगभग 2 हजार 910 रुपये का खर्च आता है।

 जबकि इन छह दिनों में सरकार से भोजन तैयार करने के लिए मिलता मात्र 2 हजार 256 रुपए ही है। ऐसे में छह दिनों में 654 रुपए का अतरिक्त खर्च मास्टर साहब की जेब से जाना तय है। जो पूरे माह में 2600 रुपये हो जाता है। इतने पैसे में खाना ही मिलना बहुत मिड डे मील बनवाने वाले शिक्षकों की माने तो नियमत: भोजन तैयार करने में वैसे तो सभी ब्रांडेड मसाले, तेल, सोयाबीन बड़ी आदि का प्रयोग किया जाना चाहिए। लेकिन वास्तव में यदि ब्रांडेड आइटम का प्रयोग करना शुरू किया तो स्कूल की रसोई चमकाने के चक्कर में घर की रसोई ठंडी होते देर नहीं लगेगी। बता दें खुली सोयाबीन बड़ी बाजार में 50 रुपये और डिब्बा बंद 90 से 100 रुपये प्रति किलो मिलती है। इसी प्रकार दूध का बाजार भाव 40 से 45 रुपए लीटर है। इसमें भी गुणवत्ता क्या होगी, इसका पता नहीं। मिलावट के कारण शिक्षक को तभी चैन मिलता है जब अगले दिन तक सभी छात्र स्वस्थ मिलते हैं ।

 दूधिए नहीं देते खुला दूध नियमित खरीद न होने और सैंप¨लग का खतरा होने के कारण गांव से शहर आने वाले दूधिए स्कूलों में दूध की आपूर्ति देने से कतराते हैं। उनका कहना है यदि सात दिन दूध खरीदा जाए तो देने में कोई समस्या नहीं है। हम आपने नियमित ग्राहक को ऐसे कैसे बीच में एक दिन छोड़ दें। कुछ लोग कहते हैे कि स्कूल का  मामला है। यदि किसी बच्चे को कोई दिक्कत आ गई तो सैंपलिंग के झंझट में कौन पड़ेगा।

दूध की गुणवत्ता कैसे परखें

स्कूल मे दूध बांटने का शासन ने फरमान जारी कर दिया। अधिकारियों ने भी इस फरमान का अमल में लाने की तैयारी शुरू कर दी। मौजूदा स्थित पर यदि गौर किया जाए तो शिक्षक के पास अभी दूध की गुणवत्ता नापने का कोई सयंत्र ही नहीं है। ऐसे में जो दूध उसे बाजार से या गांव के दूधियों से मिलता है उसी को खरीदना मजबूरी होता है। एडवांस पैसे देने पर ही मिलता पैकेट बंद दूध शिक्षकों की मानी जाए तो गांव में दूध न मिलने पर उनके सामने पैकेट बंद दूध खरीदना ही मजबूरी होता है। ऐसे में दुकानदार भी उन्हें आसानी से दूध नहीं देता बल्कि वह एक दिन पहले उसे बुक कराने का दबाव बनाता है। इसी के बाद वह सुबह शेष बचे पैसे देकर ही दूध अपने साथ स्कूल ले जाता है। इस बीच यदि दूध फट जाए तो उसका भी पैसा उसी को भरना होता है।

      खबर साभार : दैनिकजागरण

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  1. बच्चों की सेहत बनाने में गुरूजी "बीमार" : बिना बजट दूध व कोफ़्ता-चावल से मास्टर साहब को हर माह ढाई से तीन हजार का लग रहा चूना ।
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