प्राथमिक स्कूलों में शिक्षा मित्रों को सहायक अध्यापक बनाने की सरकार की नीति पर कड़ी टिप्पणी करते हुए अदालत ने कहा कि सरकार की नजर शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के बजाए वोट बैंक बढ़ाने की वजह से अयोग्य लोगों को भी नियम बदल कर शिक्षक बनाया……………
देश की प्राथमिक शिक्षा में सुधार हो, सरकारें इस मुद्दे पर दशकों से विचार कर रही हैं, लेकिन यह सुधार कैसे होगा, इस पर कभी ईमानदारी से काम नहीं किया गया। यही वजह है कि आजादी के 68 साल बीत जाने के बाद भी सरकारी नियंत्रण वाले जूनियर और सीनियर बेसिक स्कूलों में न तो शिक्षा का स्तर सुधर पा रहा है और न ही इनमें विद्यार्थियों को बुनियादी सुविधाएं मिल पा रही हैं। जाहिर है कि प्राथमिक स्कूलों में शिक्षा के सुधार के लिए जब तक कोई बड़ा कदम नहीं उठाया जाता, तब तक हालात नहीं बदलेंगे। बहरहाल आबादी के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के जूनियर और सीनियर बेसिक स्कूलों की दुर्दशा सुधारने के लिए अब अदालत को आगे आना पड़ा है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में अपने एक अहम फैसले में कहा है कि नेता-अफसर और सरकारी खजाने से वेतन या मानदेय पाने वाले हर व्यक्ति के बच्चे को सरकारी प्राइमरी स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य करें। और जो शख्स ऐसा न करे, उनके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जाए। इस काम में जरा सी भी देरी न हो। राज्य सरकार इस काम को छह महीने के भीतर पूरा करे। सरकार कोशिश करे कि यह व्यवस्था अगले शिक्षा सत्र से ही लागू हो जाए। इस कार्य को पूरा करने के बाद सरकार, अदालत को कार्यवाही की संपूर्ण रिपोर्ट पेश करे।
अपने फैसले में अदालत का साफ-साफ कहना था कि जब तक जनप्रतिनिधियों, अफसरों और जजों के बच्चे प्राइमरी स्कूलों में अनिवार्य रूप से नहीं पढ़ेंगे, तब तक इन स्कूलों की दशा नहीं सुधरेगी। अदालत यहीं नहीं रुक गई, बल्कि उसने एक सख्त कदम और आगे बढ़ाते हुए कहा कि जिन नौकरशाहों और नेताओं के बच्चे कान्वेंट स्कूलों में पढ़ें, वहां की फीस के बराबर रकम उनके वेतन से काटें। साथ ही ऐसे लोगों का इंक्रीमेंट और प्रमोशन भी कुछ समय के लिए रोकने की व्यवस्था की जाए। यानी अदालत का साफ-साफ कहना था कि जब तक इन लोगों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे, वहां के हालात नहीं सुधरेंगे। सरकारी स्कूलों के हालात सुधारने के लिए इस तरह के सख्त कदम जरूरी भी हैं। यदि अब भी यह कदम नहीं उठाए गए, तो प्राथमिक शिक्षा का पूरा ढांचा चरमरा जाएगा और इसकी जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ सरकार होगी।
गौरतलब है कि यह क्रांतिकारी आदेश न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने उत्तर प्रदेश के जूनियर हाईस्कूलों में गणित व विज्ञान के सहायक अध्यापकों की चयन प्रक्रिया पर दाखिल याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान दिया।
प्राथमिक स्कूलों में शिक्षा मित्रों को सहायक अध्यापक बनाने की सरकार की नीति पर कड़ी टिप्पणी करते हुए अदालत ने कहा कि सरकार की नजर शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के बजाए वोट बैंक बढ़ाने पर है। इसलिए अयोग्य लोगों को भी नियम बदल कर शिक्षक बनाया जा रहा है। अपने समर्पित मतदाताओं को नौकरी देने के लिए सिर्फ यह देखा जा रहा है कि वह अनपढ़ न हो।
अदालत ने इसके साथ ही गणित और विज्ञान सहायक अध्यापकों की भर्ती की 1981 की नियमावली के नियम-14 के अंतर्गत नए सिरे से अभ्यर्थियों की सूची तैयार करने का भी निर्देश दिया है। अदालत का कहना था कि इस सूची में शामिल लोगों की ही नियुक्ति की जाए। अलबत्ता अदालत ने सहायक अध्यापकों की भर्ती में 50 फीसदी सीधी व 50 फीसदी पदोन्नति से भर्ती के खिलाफ याचिकाओं पर कोई हस्तक्षेप नहीं किया।
कुछ अपवादों को यदि छोड़ दें, तो देश के ज्यादातर प्राथमिक स्कूलों के बुरे हाल हैं। इन स्कूलों की मुख्य समस्या विद्यार्थियों के अनुपात में शिक्षक का न होना है। यदि शिक्षक हैं भी, तो वे काबिल नहीं। शिक्षकों की तो बात ही छोड़ दीजिए, ज्यादातर स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं भी न के बराबर हैं। कहीं स्कूल की बिल्डिंग नहीं है। कहीं बिल्डिंग है, तो शिक्षक नहीं हैं। उत्तर प्रदेश की ही यदि बात करें, तो प्रदेश के एक लाख 40 हजार जूनियर व सीनियर बेसिक स्कूलों में हाल-फिलहाल शिक्षकों के दो लाख सत्तर हजार पद खाली पड़े हैं। जाहिर है कि जब स्कूलों में शिक्षक ही नहीं हैं, तो पढ़ाई कैसे होगी? शिक्षकों के अलावा इन स्कूलों में पीने का पानी, शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं। यह हालात तब है, जब पूरे देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू है। प्राथमिक शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए कहने को इस कानून में कई शानदार प्रावधान हैं, लेकिन ज्यादातर राज्यों ने अपने यहां इस कानून को सही तरह से अमलीजामा ही नहीं पहनाया है। कानून के मुताबिक न तो स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्ति हुई है और न ही बुनियादी सुविधाओं का विस्तार हुआ है। एक तरफ देश में सरकारी स्कूलों का ऐसा ढांचा है, जहां बुनियादी सुविधाएं और अच्छे शिक्षक नहीं हैं तो दूसरी ओर कॉरपोरेट, व्यापारियों व मिशनरियों द्वारा बड़े पैमाने पर संचालित ऐसे निजी स्कूलों का जाल फैला हुआ है, जहां विद्यार्थियों को सारी सुविधाएं और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल रही है। इन स्कूलों में अधिकारी वर्ग, उच्च वर्ग और उच्च मध्यवर्ग के बच्चे पढ़ते हैं।
चूंकि इन स्कूलों में दाखिला और फीस आम आदमी के बूते से बाहर है, लिहाजा निम्न मध्य वर्ग व आर्थिक रूप से सामान्य स्थिति वाले लोगों के बच्चों के लिए सरकारी स्कूल ही बचते हैं। देश की एक बड़ी आबादी सरकारी स्कलों के ही आसरे है। फिर वे चाहे कैसे हों। इन स्कूलों में न तो योग्य अध्यापक हैं और न ही मूलभूत सुविधाएं। बड़े अफसर और वे सरकारी कर्मचारी, जिनकी आर्थिक स्थिति बेहतर है, वे अपने बच्चों को प्राईवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं। अधिकारियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने की अनिवार्यता न होने से ही सरकारी स्कूलों की दुर्दशा हुई है।
जब इन अधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते, तो उनका इन स्कूलों से कोई सीधा लगाव भी नहीं होता। वे इन स्कूलों की तरफ ध्यान नहीं देते। सरकारी कागजों पर तो इन स्कूलों में सारी सुविधाएं मौजूद होती हैं, लेकिन यथार्थ में कुछ नहीं होता। जब उनके खुद के बच्चे यहां होंगे, तभी वह इन स्कूलों की मूलभूत आवश्यकताओं और शिक्षा गुणवत्ता सुधार की ओर ध्यान देंगे। सरकारी, अर्ध सरकारी सेवकों, स्थानीय निकायों के जनप्रतिनिधियों, न्यायपालिका व सरकारी खजाने से वेतन, मानदेय या धन प्राप्त करने वाले लोगों के बच्चे अनिवार्य रूप से जब सरकारी स्कूलों में शिक्षा लेंगे, तो निश्चित तौर पर पूरी शिक्षा व्यवस्था में भी बदलाव होगा। वे जिम्मेदार अफसर जो अब तक इन स्कूलों की बुनियादी जरूरतों से उदासीन थे, उन्हें पूरा करने के लिए प्रयासरत होंगे। अपनी ओर से वे पूरी कोशिश करेंगे कि इन स्कूलों में कोई कमी न हो।
लेकिन अब सवाल यह उठता है कि महज सरकारी स्कूलों में सभी की प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य कर देनेभर से स्थिति में सुधार आ जाएगा, या उसके लिए और भी प्रयास करने होंगे। सरकारी जूनियर व सीनियर बेसिक स्कूलों में अभिभावक अपने बच्चों को सिर्फ इसलिए ही पढ़ने नहीं भेजते कि इन स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं और अच्छे शिक्षक नहीं हैं। बल्कि इसकी और भी कई वजह हैं। मसलन अंग्रेजी, जो बच्चे के लिए रोजगार और दुनिया से जोड़ने के एतबार से सबसे ज्यादा जरूरी है, सरकारी स्कूलों में अभी भी पढ़ाई का माध्यम नहीं बन पाई है।
वहीं शायद ही कोई ऐसा प्राईवेट स्कूल होगा, जहां पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी न हो। दूसरी बड़ी वजह, प्राईवेट स्कूलों में बच्चों को एडवांस से एडवांस पाठ्यक्रम पढ़ाए जाते हैं, लेकिन सरकारी स्कूल वही पुराने पाठ्यक्रमों पर अटके हुए हैं। प्राईवेट स्कूल, शिक्षा में लगातार नवाचार कर रहे हैं, तो सरकारी स्कूलों में यथास्थिति बनी हुई है। जाहिर है, जब तक सरकार नीति के स्तर पर भी बड़े बदलाव नहीं करेगी, तब तक प्राथमिक शिक्षा में सुधार आएगा, इसकी गुंजाइश कम ही है।
~लेखक जाहिद खान
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