बच्चों के सहायक बनिए;शासक नहीं.... यदि विद्यालय में सीखी बातें न समझ पाने के कारण बच्चा होम वर्क नहीं कर पा रहा है, तो उसे यह कहकर झिड़क देने पर कि स्कूल में क्या सोते रहते हो? उसके मन में……………
बाल मस्तिष्क अपरिपक्व होता है। प्रत्येक बच्चा जन्म काल से ही निरन्तर उत्कर्ष और परिपक्वता की दिशा में अग्रसर रहता है। अपने बच्चे का विकास प्रत्येक माता- पिता चाहते हैं। लेकिन यह आकाँक्षा उस समय हानिकारक हो उठती हैं, जब वे बच्चे के विकास की प्रक्रिया के समझदार दर्शक न रहकर, अधीर हो उठते है और बच्चे को शीघ्र समझदार बना डालने के लिए बेचैन होकर सीख के नाम पर उस पर शासन करने लगते है। इसका परिणाम विपरीत ही होता है। बच्चे का मस्तिष्क माता- पिता के निर्देशों का अर्थ नहीं समझ पाता और गलत अर्थ लगा लेता है। इससे शिशु के मानसिक विकास को क्षति पहुँचती है।
अतः आवश्यकता इस बात की है कि बच्चे के मस्तिष्कीय विकास में हम सहायक बनें। बच्चे को आत्म- निर्भर बनने दे। उसे समझदार बनाने के फेर में परावलम्बी न बना डालें। आवश्यकता से अधिक निर्देश देने पर बच्चा सदैव माता- पिता की इच्छा ही भाँपता- ताकता रहता है, क्योंकि वह समझता है कि प्रशंसा और पुरस्कार प्राप्ति का यही एक मार्ग है। ऐसे में उसकी स्वतन्त्र निर्णय शक्ति कुन्द होने लगती है।
बालक की सामर्थ्य स्वतः ही विकासशील होती है। आवश्यकता मात्र इस बात की होती है कि उसकी विकास दिशा के प्रति जागरूक रहा जाए और सहायता की जाए। उदाहरण के लिए एक वर्ष का बच्चा जब खड़े होने का प्रयास करता है, तो उसे इतनी बुद्धि नहीं होती कि वह पहले यह अनुमान लगाये कि उसमें खड़े होने की सामर्थ्य आ गई या नहीं वह तो माता- पिता की तरह या बड़े भाई- बहनों की तरह स्वयं भी अपने पाँवों पर खड़ा होना चाहता है। इसके लिए वह सीधे खड़े होने की कोशिश करता है। इस प्रयास में वह बार- बार गिरेगा किन्तु यदि माता- पिता उसके इस प्रयास को देखकर उसे गिरने न देने की चिन्ता से गोदी में उठा लें, तो यह बच्चे के प्रति अन्याय होगा। उसका स्वाभाविक विकास रुक जायेगा। यही बात बच्चों के सीढ़ियाँ चढ़ने पर भी लागू होती है। गेंद आदि खेल रहा बच्चा किसी कुँए के बिल्कुल पास न पहुँच जाये या सड़क पर न चला जाये इतनी भर ही सावधानी पर्याप्त है। उसके दौड़ने, गिरने पड़ने से बहुत परेशान होना अनावश्यक है।
यहाँ माता- पिता को यह ध्यान रखना आवश्यक है, जहाँ बालक को पग- पग पर निर्देश देना हानिकर है, वही उसमें यह बोध भी बने रहने देना जरूरी है कि किसी भी अनावश्यक क्षण में उसे माता- पिता का सहज सहयोग उपलब्ध होगा। क्योंकि यदि बच्चे को मन में यह आश्वासन न रहे तो उसे एक तरह की अपंगता और हीनता का अनुभव होगा तथा उसके विकास में व्यवधान आयेगा। उसे हानिकर चेष्टाओं से विरत रखने के लिए भी अभिभावक की उपस्थिति एवं सतर्कता आवश्यक है।
शिशु के लिए संसार की प्रत्येक वस्तु जिज्ञासा की प्रेरक होती है। उसकी जिज्ञासा का समाधान आवश्यक है। झिड़की, डाँट- फटकार से उसकी जिज्ञासा वृत्ति तो कुण्ठित होगी ही, वह अर्थ का अनर्थ भी कर बैठेगा। उदाहरण के लिए बच्चा किसी पुस्तक या समाचार पत्र से खेलने को उतारू है, तो उसे बताया जाए कि यह पढ़ने की सामग्री है और इसे इस तरह हाथों में थामा जाता है। यदि उत्तेजना वश उसे झिड़क दिया गया तो वह यह समझ सकता है कि पुस्तकें आदि छूने की वस्तुएँ नहीं हैं। इससे उसकी उत्सुकता मन्द पड़ेगी। या फिर आकस्मिक डाँट से वह अभिभावक के पास आने से कतराने लग सकता है।
एक ओर जहाँ अकारण झिड़कना अनुचित है, वहीं अनावश्यक सहयोग भी हानिकारक है। पाठशाला जाने वाले बच्चे का गृह कार्य प्रारम्भ में स्वयं ही कर देने वाले माता पिता या भाई बहन बच्चे का अनिष्ट ही करते हैं। यदि शुरुआत ही इस तरह की हो गई तो बच्चा और बड़ा होने पर भी ऐसी ही अपेक्षा पाले रहेगा और परमुखापेक्षी तथा कातर बना रहेगा।
दूसरी ओर उसकी कठिनाई को न समझने पर तथा डाँट देने पर बालक के मन में उदासीनता घर कर जाएगी। यदि विद्यालय में सीखी बातें न समझ पाने के कारण बच्चा होम वर्क नहीं कर पा रहा है, तो उसे यह कहकर झिड़क देने पर कि स्कूल में क्या सोते रहते हो? उसके मन में कुण्ठा उत्पन्न हो जायेगी, वह होमवर्क को बोझ मान लेगा, पढ़ाई के प्रति उदासीन होने लगेगा और फिर सचमुच स्कूल में सोने लगेगा। उदासीनता की प्रवृत्ति का विकास बच्चे के व्यक्तित्व को अत्यधिक क्षति पहुँचाता है तथा उसे अधिकाधिक आत्म- केन्द्रित बनाता है। ऐसे ही शिशु आगे चलकर अपराधी या असामाजिक तत्वों के हस्तक बन जाते है। अतः बालक को निष्क्रिय एवं आत्म- केन्द्रित कभी भी नहीं बनने देना चाहिए। उसकी शक्ति क्रियाशील तथा रचनात्मक बनी रहे, इसका ध्यान रखना आवश्यक होता है।
बच्चों को डराना धमकाना तो कभी भी चाहिए ही नहीं। क्योंकि इससे उनमें कायरता और हीनता की भावनाएँ पनपती हैं। बालक की इच्छा का सदैव सम्मान करना चाहिए। जिस समय उसके मन में क्रीड़ा की लालसा प्रबल है, उस समय अध्ययन के लिए बैठने को विवश करना उस पर अन्याय है। सही विधि यह है कि उसे खेलने की अनुमति दे दी जाए और स्मरण करा दिया जाए कि इसके बाद पढ़ना है। वह सहर्ष इसे स्वीकार कर लेगा। उल्लास बच्चे में भरपूर होता है, उस उल्लास को कभी भी दबाना नहीं चाहिए। उसका सही उपयोग करना चाहिए। इस सबका यह अर्थ कदापि नहीं कि बच्चे को अनुशासन न सिखाया जाए। यदि बच्चे को खेलने की अनुमति देते समय आपने बाद में पढ़ने को कहा है, तो इस बात का ध्यान रखें कि वह खेल के बाद पढ़ने बैठता है या नहीं? यदि वह खेल के दौरान पढ़ाई वाली बात भूल गया है, तो उसे इसका स्मरण दिला देना चाहिए, यदि इस पर भी वह टालमटोल करता है तो अनुशासन की पद्धति निस्संकोच अपनानी चाहिए।
आभार : speakingtree
बाल मस्तिष्क अपरिपक्व होता है। प्रत्येक बच्चा जन्म काल से ही निरन्तर उत्कर्ष और परिपक्वता की दिशा में अग्रसर रहता है। अपने बच्चे का विकास प्रत्येक माता- पिता चाहते हैं। लेकिन यह आकाँक्षा उस समय हानिकारक हो उठती हैं, जब वे बच्चे के विकास की प्रक्रिया के समझदार दर्शक न रहकर, अधीर हो उठते है और बच्चे को शीघ्र समझदार बना डालने के लिए बेचैन होकर सीख के नाम पर उस पर शासन करने लगते है। इसका परिणाम विपरीत ही होता है। बच्चे का मस्तिष्क माता- पिता के निर्देशों का अर्थ नहीं समझ पाता और गलत अर्थ लगा लेता है। इससे शिशु के मानसिक विकास को क्षति पहुँचती है।
अतः आवश्यकता इस बात की है कि बच्चे के मस्तिष्कीय विकास में हम सहायक बनें। बच्चे को आत्म- निर्भर बनने दे। उसे समझदार बनाने के फेर में परावलम्बी न बना डालें। आवश्यकता से अधिक निर्देश देने पर बच्चा सदैव माता- पिता की इच्छा ही भाँपता- ताकता रहता है, क्योंकि वह समझता है कि प्रशंसा और पुरस्कार प्राप्ति का यही एक मार्ग है। ऐसे में उसकी स्वतन्त्र निर्णय शक्ति कुन्द होने लगती है।
बालक की सामर्थ्य स्वतः ही विकासशील होती है। आवश्यकता मात्र इस बात की होती है कि उसकी विकास दिशा के प्रति जागरूक रहा जाए और सहायता की जाए। उदाहरण के लिए एक वर्ष का बच्चा जब खड़े होने का प्रयास करता है, तो उसे इतनी बुद्धि नहीं होती कि वह पहले यह अनुमान लगाये कि उसमें खड़े होने की सामर्थ्य आ गई या नहीं वह तो माता- पिता की तरह या बड़े भाई- बहनों की तरह स्वयं भी अपने पाँवों पर खड़ा होना चाहता है। इसके लिए वह सीधे खड़े होने की कोशिश करता है। इस प्रयास में वह बार- बार गिरेगा किन्तु यदि माता- पिता उसके इस प्रयास को देखकर उसे गिरने न देने की चिन्ता से गोदी में उठा लें, तो यह बच्चे के प्रति अन्याय होगा। उसका स्वाभाविक विकास रुक जायेगा। यही बात बच्चों के सीढ़ियाँ चढ़ने पर भी लागू होती है। गेंद आदि खेल रहा बच्चा किसी कुँए के बिल्कुल पास न पहुँच जाये या सड़क पर न चला जाये इतनी भर ही सावधानी पर्याप्त है। उसके दौड़ने, गिरने पड़ने से बहुत परेशान होना अनावश्यक है।
यहाँ माता- पिता को यह ध्यान रखना आवश्यक है, जहाँ बालक को पग- पग पर निर्देश देना हानिकर है, वही उसमें यह बोध भी बने रहने देना जरूरी है कि किसी भी अनावश्यक क्षण में उसे माता- पिता का सहज सहयोग उपलब्ध होगा। क्योंकि यदि बच्चे को मन में यह आश्वासन न रहे तो उसे एक तरह की अपंगता और हीनता का अनुभव होगा तथा उसके विकास में व्यवधान आयेगा। उसे हानिकर चेष्टाओं से विरत रखने के लिए भी अभिभावक की उपस्थिति एवं सतर्कता आवश्यक है।
शिशु के लिए संसार की प्रत्येक वस्तु जिज्ञासा की प्रेरक होती है। उसकी जिज्ञासा का समाधान आवश्यक है। झिड़की, डाँट- फटकार से उसकी जिज्ञासा वृत्ति तो कुण्ठित होगी ही, वह अर्थ का अनर्थ भी कर बैठेगा। उदाहरण के लिए बच्चा किसी पुस्तक या समाचार पत्र से खेलने को उतारू है, तो उसे बताया जाए कि यह पढ़ने की सामग्री है और इसे इस तरह हाथों में थामा जाता है। यदि उत्तेजना वश उसे झिड़क दिया गया तो वह यह समझ सकता है कि पुस्तकें आदि छूने की वस्तुएँ नहीं हैं। इससे उसकी उत्सुकता मन्द पड़ेगी। या फिर आकस्मिक डाँट से वह अभिभावक के पास आने से कतराने लग सकता है।
एक ओर जहाँ अकारण झिड़कना अनुचित है, वहीं अनावश्यक सहयोग भी हानिकारक है। पाठशाला जाने वाले बच्चे का गृह कार्य प्रारम्भ में स्वयं ही कर देने वाले माता पिता या भाई बहन बच्चे का अनिष्ट ही करते हैं। यदि शुरुआत ही इस तरह की हो गई तो बच्चा और बड़ा होने पर भी ऐसी ही अपेक्षा पाले रहेगा और परमुखापेक्षी तथा कातर बना रहेगा।
दूसरी ओर उसकी कठिनाई को न समझने पर तथा डाँट देने पर बालक के मन में उदासीनता घर कर जाएगी। यदि विद्यालय में सीखी बातें न समझ पाने के कारण बच्चा होम वर्क नहीं कर पा रहा है, तो उसे यह कहकर झिड़क देने पर कि स्कूल में क्या सोते रहते हो? उसके मन में कुण्ठा उत्पन्न हो जायेगी, वह होमवर्क को बोझ मान लेगा, पढ़ाई के प्रति उदासीन होने लगेगा और फिर सचमुच स्कूल में सोने लगेगा। उदासीनता की प्रवृत्ति का विकास बच्चे के व्यक्तित्व को अत्यधिक क्षति पहुँचाता है तथा उसे अधिकाधिक आत्म- केन्द्रित बनाता है। ऐसे ही शिशु आगे चलकर अपराधी या असामाजिक तत्वों के हस्तक बन जाते है। अतः बालक को निष्क्रिय एवं आत्म- केन्द्रित कभी भी नहीं बनने देना चाहिए। उसकी शक्ति क्रियाशील तथा रचनात्मक बनी रहे, इसका ध्यान रखना आवश्यक होता है।
बच्चों को डराना धमकाना तो कभी भी चाहिए ही नहीं। क्योंकि इससे उनमें कायरता और हीनता की भावनाएँ पनपती हैं। बालक की इच्छा का सदैव सम्मान करना चाहिए। जिस समय उसके मन में क्रीड़ा की लालसा प्रबल है, उस समय अध्ययन के लिए बैठने को विवश करना उस पर अन्याय है। सही विधि यह है कि उसे खेलने की अनुमति दे दी जाए और स्मरण करा दिया जाए कि इसके बाद पढ़ना है। वह सहर्ष इसे स्वीकार कर लेगा। उल्लास बच्चे में भरपूर होता है, उस उल्लास को कभी भी दबाना नहीं चाहिए। उसका सही उपयोग करना चाहिए। इस सबका यह अर्थ कदापि नहीं कि बच्चे को अनुशासन न सिखाया जाए। यदि बच्चे को खेलने की अनुमति देते समय आपने बाद में पढ़ने को कहा है, तो इस बात का ध्यान रखें कि वह खेल के बाद पढ़ने बैठता है या नहीं? यदि वह खेल के दौरान पढ़ाई वाली बात भूल गया है, तो उसे इसका स्मरण दिला देना चाहिए, यदि इस पर भी वह टालमटोल करता है तो अनुशासन की पद्धति निस्संकोच अपनानी चाहिए।
आभार : speakingtree
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