परीक्षा से कौन डरता है : अब छात्रों को नहीं अध्यापकों को डर लगता है
अब कौन डरता है परीक्षा से। पहले के छात्रों को बार-बार लघुशंका की हाजत होती थी। इसी कारण भय से अनेक बार छात्र परीक्षा भवन से उठ नहीं पाता था तथा लघु एवं दीर्घ शंकाओं का निवारण वहीं कर बैठता था। परीक्षा भवन में जिस शिक्षक की ड्यूटी होती थी, वह बेहद डरावना होता था। पहले ही मालूम करने के प्रयास किए जाते थे कि कौन-से शिक्षक की ड्यूटी आज किस कमरे में लगाई गई है। समय ने फेर खाया। हालात एकदम विपरीत हो गए। जो शंकाएं कभी छात्र को हुआ करती थीं, वे अब शिक्षक को होने लगीं। भय भी उसे ही खाने लगा। स्थिति यह है कि छात्र सिगरेट फूंकता हुआ परीक्षा भवन में घुसता है तथा परीक्षक को चश्मे में से घूरता हुआ कॉपी लेता है एवं मूक भाषा में हिदायत देता है कि यदि उसने कोई शिष्टता की, तो वह अशिष्टता का शिकार हो जाएगा। छात्रों में हुए इस आमूलचूल परिवर्तन को मद्देनजर रखते हुए हम देश के इस भावी कर्णधार की करतूतों को देखें, तो पाएंगे कि देश का भविष्य काफी सुरक्षित हो गया है।
मौलिक प्रश्न आज छात्र के सामने यह है कि परीक्षा पद्धति का प्रचलन किस व्यक्ति की खोज है। जब छात्र पढ़ाई के लिए अच्छी-खासी फीस चुका रहा है, तब फिर पास होने के लिए परीक्षा क्यों दी जाए। परंतु साहब दी जा रही है। ले लीजिए न परीक्षा, क्या फर्क पड़ता है? पेपर सेट करने वाला पहले ही छात्रों का लोहा माने हुए है। वह सब कुछ बता देता है। पेपर नहीं मालूम हुआ, तो क्या? खाली कॉपी दे आओ, बाद में जो काम तीन घंटे में नहीं कर सके, वह तीस दिन में आराम से करिए। परीक्षक कॉपी दे देगा, किताब से नकल कर आराम से लिखिए। एक राज्य के मुख्यमंत्री ने छात्रों के हितों को ध्यान में रखते हुए परीक्षा हॉल में किताब ले जाने की छूट दे दी थी। हालांकि तब भी कुछ बच्चे फेल हो जाते थे, क्योंकि तीन घंटे में किताब देखकर तो वही टीप सकता है, जिसने पहले से पढ़ रखा हो। पर साहब, कुछ भी कहिए, परीक्षा का नाम सुनकर अब छात्रों को नहीं, अध्यापकों को पसीना आने लगता है।
कम से बेसिक स्कूलों में भी परीक्षा की स्थिति भी कुछ अच्छी नहीं कही जा सकती है क्योंकि बच्चे भी परीक्षा की महत्ता को समझ नहीं पा रहे हैं | इन सब कारणों परीक्षा से जो परख छात्रो का होता था वो अब नहीं रह गया है | कहीं न कहीं इन सब भमिकाओं में अभिभावक भी ठगा सा महसूस करता है क्योकि उसकी अपनी भूमिका बेसिक के बच्चों के प्रति संदिग्ध है ,जो नर्सरी स्कूलों में जाने वाले बच्चों की तरह ही अपने ही बेसिक स्कूलों में जाने वाले बच्चे को सुसज्जित नहीं करता है ऐसा क्यों करता है वह खुद नहीं समझ पाता? देखने वाली बात होगी कि वह इन सब बातों को कब समझ पाता है और सुधार की तरफ एक पहल करता है |
साभार :अमर उजाला व दयानन्द त्रिपाठी
अब कौन डरता है परीक्षा से। पहले के छात्रों को बार-बार लघुशंका की हाजत होती थी। इसी कारण भय से अनेक बार छात्र परीक्षा भवन से उठ नहीं पाता था तथा लघु एवं दीर्घ शंकाओं का निवारण वहीं कर बैठता था। परीक्षा भवन में जिस शिक्षक की ड्यूटी होती थी, वह बेहद डरावना होता था। पहले ही मालूम करने के प्रयास किए जाते थे कि कौन-से शिक्षक की ड्यूटी आज किस कमरे में लगाई गई है। समय ने फेर खाया। हालात एकदम विपरीत हो गए। जो शंकाएं कभी छात्र को हुआ करती थीं, वे अब शिक्षक को होने लगीं। भय भी उसे ही खाने लगा। स्थिति यह है कि छात्र सिगरेट फूंकता हुआ परीक्षा भवन में घुसता है तथा परीक्षक को चश्मे में से घूरता हुआ कॉपी लेता है एवं मूक भाषा में हिदायत देता है कि यदि उसने कोई शिष्टता की, तो वह अशिष्टता का शिकार हो जाएगा। छात्रों में हुए इस आमूलचूल परिवर्तन को मद्देनजर रखते हुए हम देश के इस भावी कर्णधार की करतूतों को देखें, तो पाएंगे कि देश का भविष्य काफी सुरक्षित हो गया है।
मौलिक प्रश्न आज छात्र के सामने यह है कि परीक्षा पद्धति का प्रचलन किस व्यक्ति की खोज है। जब छात्र पढ़ाई के लिए अच्छी-खासी फीस चुका रहा है, तब फिर पास होने के लिए परीक्षा क्यों दी जाए। परंतु साहब दी जा रही है। ले लीजिए न परीक्षा, क्या फर्क पड़ता है? पेपर सेट करने वाला पहले ही छात्रों का लोहा माने हुए है। वह सब कुछ बता देता है। पेपर नहीं मालूम हुआ, तो क्या? खाली कॉपी दे आओ, बाद में जो काम तीन घंटे में नहीं कर सके, वह तीस दिन में आराम से करिए। परीक्षक कॉपी दे देगा, किताब से नकल कर आराम से लिखिए। एक राज्य के मुख्यमंत्री ने छात्रों के हितों को ध्यान में रखते हुए परीक्षा हॉल में किताब ले जाने की छूट दे दी थी। हालांकि तब भी कुछ बच्चे फेल हो जाते थे, क्योंकि तीन घंटे में किताब देखकर तो वही टीप सकता है, जिसने पहले से पढ़ रखा हो। पर साहब, कुछ भी कहिए, परीक्षा का नाम सुनकर अब छात्रों को नहीं, अध्यापकों को पसीना आने लगता है।
कम से बेसिक स्कूलों में भी परीक्षा की स्थिति भी कुछ अच्छी नहीं कही जा सकती है क्योंकि बच्चे भी परीक्षा की महत्ता को समझ नहीं पा रहे हैं | इन सब कारणों परीक्षा से जो परख छात्रो का होता था वो अब नहीं रह गया है | कहीं न कहीं इन सब भमिकाओं में अभिभावक भी ठगा सा महसूस करता है क्योकि उसकी अपनी भूमिका बेसिक के बच्चों के प्रति संदिग्ध है ,जो नर्सरी स्कूलों में जाने वाले बच्चों की तरह ही अपने ही बेसिक स्कूलों में जाने वाले बच्चे को सुसज्जित नहीं करता है ऐसा क्यों करता है वह खुद नहीं समझ पाता? देखने वाली बात होगी कि वह इन सब बातों को कब समझ पाता है और सुधार की तरफ एक पहल करता है |
साभार :अमर उजाला व दयानन्द त्रिपाठी
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