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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

MAN KI BAAT : बच्चों की असफलता का ठीकरा केवल स्कूल के संस्थागत कारणों पर नहीं फोड़ा जा सकता, अक्सर संसाधनों का अभाव और शिक्षकों के गैर-पेशेवर रवैये को दोष दिया जाता है, इतना तो तय है कि उन्हें कटघरे में खड़ा करके हल नहीं खोजा.....

MAN KI BAAT : बच्चों की असफलता का ठीकरा केवल स्कूल के संस्थागत कारणों पर नहीं फोड़ा जा सकता, अक्सर संसाधनों का अभाव और शिक्षकों के गैर-पेशेवर रवैये को दोष दिया जाता है, इतना तो तय है कि उन्हें कटघरे में खड़ा करके हल नहीं खोजा.....

🔵 ग्रामीण शिक्षा की खराब सेहत

एनुअल स्टेट्स ऑफ एजुकेशन यानी असर की 2018 की रिपोर्ट ग्रामीण भारत में स्कूली शिक्षा की चिंताजनक स्थिति को उजागर करती है। इसमें 596 जिलों के लगभग साढ़े तीन लाख ग्रामीण परिवारों और 16 हजार स्कूलों के सर्वेक्षण के आधार पर प्राथमिक विद्यालयों तक बच्चों की पहुंच, उपलब्धि और विद्यालयों की ढांचागत संरचना के आंकड़े तैयार किए गए।

ये आंकड़े स्कूली शिक्षा की व्यक्ति और समाज के साथ अंत:क्रिया के बारे में कुछ महत्वपूर्ण रुझान देते हैं। इस रिपोर्ट में स्कूलों में नामांकन और बुनियादी सुविधाओं जैसे पैमानों पर सकारात्मक वृद्धि दर्ज की गई है, लेकिन पढ़ने और गिनने जैसी कुशलता में विद्यार्थियों की खस्ता हालत स्कूली शिक्षा की प्रक्रिया और प्रभाव के बारे में सवाल खड़े करती है।

उदाहरण के लिए 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों का स्कूलों में नामांकन लगभग 95 प्रतिशत है। 11 से 14 वर्ष तक आयु की विद्यालय न जाने वाली लड़कियों का प्रतिशत 4.1 है। यह सार्थक बदलाव शिक्षा के अधिकार कानून के धरातल पर क्रियान्वित होने का परिणाम है। इस वर्ष सरकारी स्कूलों के नामांकन प्रतिशत और निजी स्कूलों में नामांकन प्रतिशत लगभग बराबर हैं। ये आंकड़े उत्साहवर्धक हैं, लेकिन गांवों में प्राथमिक शिक्षा की वास्तविकता के बारे में केवल इनके आधार पर निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा।

कुछ लोग ऐसा भी सोच सकते हैं कि जो बच्चे पहले निजी स्कूलों में जाते थे क्या अब वे सरकारी स्कूलों में आ रहे हैं? आंकड़े इस निष्कर्ष तक पहुंचने में मदद नहीं करते। वर्ष 2018 में लगभग एक चौथाई सरकारी स्कूलों में बच्चों का नामांकन 60 और इससे भी कम है। अर्थात निजी स्कूलों को अभी भी सरकारी स्कूलों के बदले अधिक अधिमान दिया जा रहा है तो इस वृद्धि में कौन से बच्चे शामिल हैं? वे बच्चे शामिल हैं जो नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार न मिलने पर स्कूल के बाहर ही रह जाते हैं या जिनके परिवार शैक्षणिक खर्च को वहन नहीं कर सकते?

शिक्षा के अधिकार कानून, 2009 के बाद से स्कूलों की संख्या में वृद्धि, शिक्षकों की नियुक्ति, शौचालय और खेल के मैदान जैसी ढांचागत संरचना में सुधार और स्कूल तक बच्चों को लाने के लिए की जाने वाली कवायदों के कारण सरकारी विद्यालयों में नामांकन बढ़ा है। वर्ष 2008 में कक्षा आठ में पढ़ने वाले लगभग 85 प्रतिशत विद्यार्थी कक्षा दो की किताब पढ़ सकते थे जबकि 2018 में इनकी संख्या घटकर लगभग 73 प्रतिशत हो गई है। इसी तरह कक्षा आठ के केवल 44 प्रतिशत बच्चे तीन अंकों में एक अंक से भाग देने में सक्षम हैं।

स्मरण रहे कि बच्चों की अकादमिक उपलब्धि के संदर्भ में निजी स्कूलों के बच्चे सरकारी स्कूलों के बच्चों से बेहतर हैं। इसके पक्ष में निजी स्कूलों की आधार-संरचना, अध्यापकों की निगरानी और परिणाम के लिए समर्पित प्रबंधन का तर्क पर्याप्त नहीं है। निजी स्कूलों के बच्चे ऐसे परिवारों से आते हैं जिनके पास सांस्कृतिक और सामाजिक पूंजी है जो उन्हें घर पर पढ़ने-पढ़ाने में सहयोग देती है। सरकारी स्कूलों के बच्चों और अभिभावकों के संदर्भ में इसका अभाव है।


बच्चों की उपलब्धि और सीखने में अंतर एक सांस्कृतिक अंतर है जो स्कूल में प्रवेश के पहले से सक्रिय हो जाता है। एक कल्याणकारी राज्य द्वारा दिया गया शिक्षा का यह अधिकार भी इस सांस्कृतिक अंतर को पाट नहीं पा रहा है। इस रिपोर्ट से स्पष्ट है कि शैक्षिक अवसरों की समानता और गुणवत्ता की दृष्टि से गांवों में बसने वाला भारत ऐसी भौगोलिक इकाई बनता जा रहा है जहां शिक्षा के मूल अधिकार की प्रक्रिया और परिणाम में भारी अंतर है। अमीरी और गरीबी ही इसका एकमात्र कारण नहीं है।

जेंडर, जाति, क्षेत्र, भाषा और धर्म भी इनसे जुड़कर एक जटिल जाल बना रहे हैं जो सामाजिक हाशियेकरण को बढ़ावा दे रहा है। स्कूल अपनी संस्थागत उपस्थिति के बावजूद हमारे ‘आधुनिकता’ के एजेंडे को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। ‘आधुनिक’ शिक्षा के प्रति समाज यह विश्वास करता है कि इससे व्यक्ति में आर्थिक सामथ्र्य आएगी और वह लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाला नागरिक बनेगा। जिन बच्चों ने असर-2018 में हिस्सा लिया और जिनकी उपलब्धि के आंकड़े भविष्य में उनकी असफलता की आशंका बढ़ा देते हैं वे आर्थिक स्वावलंबन के लक्ष्य से दूर जा रहें हैं, क्योंकि आधुनिक राज्यों में साक्षरता प्रधान रोजगारों की ही भरमार है।

अर्थव्यवस्था में गांवों की जो स्थिति है उसमें स्पष्ट है कि आजीविका की दृष्टि से गांव लोगों को रोक पाने में सक्षम नहीं हैं। स्कूली शिक्षा द्वारा असफलता की ओर धकेली जाने वाली यह आबादी जब गांव से बाहर जाकर शहरों में ऐसी भीड़ बढ़ाएगी जिसे नौकरी की जरूरत है, लेकिन उनके पास आधुनिक रोजगारों की अर्हता नहीं है। असफलता का यह ठप्पा प्रत्येक चरण के साथ और गहरा होता जाएगा। इसी तरह ‘आधुनिकता’ की यह मान्यता कि शिक्षा अपने भागीदारों को लोकतांत्रिक समाज के लिए तैयार करती है, भी पूरी नहीं होगी। यद्यपि इस मान्यता पर बहुत अधिक विश्वास करने वाले प्रमाण और उदाहरण उपलब्ध नहीं है। हां यह जरूर है कि गुणवत्तापरक शिक्षा की शर्त पूरी होने पर इसके भागीदारों लोकतांत्रिक मूल्यों की अभिवृत्ति की संभावना जरूर बढ़ जाती है।

असर की रिपोर्ट से स्पष्ट है कि ग्रामीण भारत में स्कूल जाने की उम्र वाले बच्चों के लिए स्कूल ऐसी जगह बनता जा रहा है जहां बच्चे अपने दिन का एक बड़ा हिस्सा तो बिताते हैं, लेकिन इस संस्था की दिनचर्या का आयोजन जिस उद्देश्य से होता है उसे वे पूरा नहीं कर पा रहे हैं। बच्चों की असफलता का ठीकरा केवल स्कूल के संस्थागत कारणों पर नहीं फोड़ा जा सकता। अक्सर संसाधनों का अभाव और शिक्षकों के गैर-पेशेवर रवैये को दोष दिया जाता है। इतना तो तय है कि उन्हें कटघरे में खड़ा करके हल नहीं खोजा जा सकता है। ये इस समस्या के समाधान के केंद्रीय तत्व हैं। उन पर संदेह और निगरानी करने के बजाय विश्वास करना होगा। उन्हें समर्थ बनाना होगा कि समानता के लिए शिक्षा के रूपांतरणकारी लक्ष्य में भागीदार बने। इसके साथ ही हमें समुदाय की भागीदारी को भी सार्थक बनाने का प्रयास करना होगा। हमें पूर्व प्राथमिक शिक्षा, बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण की सुविधा को मजबूत करना होगा। सीखने की विधि, सामग्री और दिनचर्या को बच्चे के संदर्भ के अनुसार अनुकूलित करना होगा। अंतत: यह स्थापित करना होगा कि समस्या न तो बच्चे के संज्ञान में है न ही उसकी पृष्ठभूमि में, बल्कि यह राज्य और उसके अभिकर्ताओं को बच्चे के लिए शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने का सवाल है।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदू विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं)



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