logo

Basic Siksha News.com
बेसिक शिक्षा न्यूज़ डॉट कॉम

एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

MAN KI BAAT : असली सवाल तो यह है कि अगर शिक्षा-व्यवस्था में इतना अन्याय है, तो फिर यह एक न्यायपूर्ण समाज बनाने के अपने सबसे बड़े लक्ष्य को कैसे हासिल.......

MAN KI BAAT : असली सवाल तो यह है कि अगर शिक्षा-व्यवस्था में इतना अन्याय है, तो फिर यह एक न्यायपूर्ण समाज बनाने के अपने सबसे बड़े लक्ष्य को कैसे हासिल.......

🔵 स्कूली शिक्षा क्यों नहीं सिखाती सामाजिक संवेदनशीलता   


एक सरकारी स्कूल का दौरा करते समय तीसरी कक्षा के बच्चे बडे़ उत्साह से मुझे अपनी नोटबुक दिखा रहे थे। अचानक टीचर ने एक बच्चे को झापड़ मारा, जिसने मेरे हाथ में अपनी नोटबुक तेजी से ठेलते हुए दूसरे बच्चे को धक्का दे दिया था। मैंने अचंभित होकर उनसे पूछा कि आपने बच्चे को झापड़ क्यों मारा? उन्होंने बताया कि उस बच्चे ने आपसे कन्नड में कहा था कि दूसरे बच्चे की कॉपी न लें, क्योंकि वह ‘शेड्यूल्ड कास्ट’ था। आखिर तीसरी कक्षा के बच्चे के जेहन में ‘शेड्यूल्ड कास्ट’ की अवधारणा किसने डाली? इसका स्रोत कोई भी हो सकता था- उसके मां-बाप, पड़ोसी, दूसरे बच्चे, टीचर या उसका चौकस दिमाग। न्याय के प्रति संवेदनशीलता  घर और स्कूल से ही बरती जानी चाहिए, क्योंकि इनकी यह विशिष्ट जिम्मेदारी है कि वे हमारे बच्चों को इस तरह विकसित करें कि वे सांविधानिक मूल्यों को समझने वाले जिम्मेदार सामाजिक नागरिक बनें। यहां हम इसके कुछ खास आयामों की चर्चा करेंगे।
 


पहला, अधिकांश बच्चों के साथ अन्याय तभी शुरू हो जाता है, जब वे प्रारंभिक शिक्षा से वंचित कर दिए जाते हैं। ऐसा खासतौर से गांव में रहने वाले बच्चों के साथ होता है, क्योंकि शहरों में रहने वाले बच्चों को फिर भी यह शिक्षा कुछ हद तक उपलब्ध हो जाती है। इसके चलते, पहली कक्षा के लिए इन बच्चों की तैयारी ज्यादा बेहतर होती है। इनमें से कई तो पढ़ने, लिखने और गिनती गिनने में भी सक्षम होते हैं। इसके विपरीत, जिन बच्चों को यह सुविधा नहीं मिली होती, वे पहली कक्षा में ही यह सब सीखते हैं। इसका अर्थ है कि ये बच्चे तुलनात्मक रूप से कमजोर और वंचित होते हैं। दूसरा, अभिभावकों की भूमिका। मैं पहली कक्षा में काफी देर से गया था, करीब सात साल की उम्र में। वह भी बिना किसी तरह की प्रारंभिक बाल शिक्षा के, क्योंकि मैंने उसमें जाने से इनकार कर दिया था। इसके बावजूद, जब मैं पहली कक्षा में गया, तब आसानी से पढ़-लिख सकता था। यर्ह सिर्फ मेरे घर के माहौल और मां-बाप के समर्थन के चलते संभव था। ऐसे बच्चे, जिनके माता-पिता अशिक्षित या अद्र्धशिक्षित हैं, उनके लिए ऐसा समर्थन देना संभव नहीं होता और ये बच्चे शुरू से ही वंचित हो जाते हैं। निजी व सरकारी स्कूलों के बीच बेसिर-पैर की तुलना करते वक्त लोग भूल जाते हैं कि सरकारी स्कूलों को अक्सर इस स्थिति का सामना करना पड़ता है। 
 


तीसरा आयाम है शिक्षक-शिक्षिकाओं को अन्याय के प्रति संवेदनशील बनाने का। स्कूलों में बच्चों के  साथ अक्सर असंवेदनशील तरीके से बर्ताव किया जाता है। ऊंची जातियों के बच्चों के अभिभावक उनको निचली जाति के बच्चों से दूर रहने की हिदायत देते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि शिक्षक (खासतौर से ऊंची जाति के) अनजाने में, न सिर्फ पिछड़ी जातियों के बच्चों से, बल्कि गरीब परिवारों के बच्चों से भी दूरी बना लेते हैं। ऐसे अपमानजनक अनुभव का हर बच्चे पर अलग प्रभाव पड़ता है। कुछ बच्चों का आत्मविश्वास हमेशा के लिए टूट जाता है। कुछ में हमेशा के लिए कड़वाहट भर जाती है। समावेशी शैक्षणिक व्यवहार के लिए हमें टीचरों में ज्यादा संवेदनशीलता विकसित करनी होगी। चौथा आयाम है स्कूलों में सहयोगी वातावरण के निर्माण का। स्कूल-नेतृत्व वहां न्याय पर आधारित प्रभावशाली संस्कृति विकसित कर सकता है। इसमें स्कूल की सभा के तौर-तरीकों, कार्यक्रमों, स्कूली जलसे-वार्षिक समारोहों और स्कूल में आयोजित राष्ट्रीय पर्व शामिल हैं। इसके लिए नेतृत्व में सामाजिक मुद्दों के प्रति गहरी संवेदनशीलता की जरूरत होगी। 
 


मुझे याद है कि स्कूल में हमारे प्रधानाचार्य ने एक बार एक विद्यार्थी को उसके पिता के साथ बुलाया और मुझसे परिचय कराते हुए कहा- यह हमारे स्वीपर का लड़का है और पढ़ाई में काफी अच्छा प्रदर्शन कर रहा है। स्कूल के लिए सिर्फ नेकनीयती काफी नहीं, बल्कि वहां हर व्यवहार और हर वाक्य के निहितार्थों के प्रति भी सचेत रहने की जरूरत है। असली सवाल तो यह है कि अगर खुद शिक्षा-व्यवस्था में इतना अन्याय है, तो फिर यह एक न्यायपूर्ण समाज बनाने के अपने सबसे बड़े लक्ष्य को वह कैसे हासिल कर पाएगी?

लेखक- दिलीप रांजेकर

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Post a Comment

0 Comments