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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

MAN KI BAAT : हमने शिक्षा को संस्थानों और उसकी प्रक्रियाओं के औपचारिक बंधन में इस तरह बांधने का उपक्रम किया है कि बचपन से ही शिक्षा का अर्थ ‘पास’ और ‘फेल’ में सिमट कर रह गया, शिक्षा के औपचारिक कलेवर को मजबूत करने के लिए......

MAN KI BAAT : हमने शिक्षा को संस्थानों और उसकी प्रक्रियाओं के औपचारिक बंधन में इस तरह बांधने का उपक्रम किया है कि बचपन से ही शिक्षा का अर्थ ‘पास’ और ‘फेल’ में सिमट कर रह गया, शिक्षा के औपचारिक कलेवर को मजबूत करने के लिए......


🔴 पास और फेल तक सीमित शिक्षा

हमने जिस ढंग से ज्ञान को समझने और आंकने की व्यवस्था कर रखी है उसमें यह अजूबा स्वाभाविक है कि अच्छी-खासी संख्या में छात्र 90-95 प्रतिशत अंक लेकर पास हो रहे हैं ।

आज विद्यालय स्तर की शिक्षा के समक्ष अनेक प्रश्न खड़े हैं। इनके समाधान की अपेक्षा है। इन प्रश्नों का उत्तर खोजना सरल कार्य नहीं रहा, खास तौर पर तब जब जीवन के नक्शे में बड़ा बदलाव रहा है। एक जमाना था जब सभी औपचारिक शिक्षा के लिए अनिवार्य रूप से विद्यालय नहीं जाते थे। कुछ लोग घरों पर खेती, पशुपालन या व्यापार जैसे अन्य जीवनोपयोगी काम करते हुए वयस्क व्यक्तियों के साथ रहते हुए जीवन जीना सीखते थे। जो हम इसे शिक्षा नहीं कहेंगे, क्योंकि हमारे लिए अब शिक्षा का अर्थ पास या फेल होना और प्रमाणपत्र पाना ही रह गया है। कोई बच्चा पहले स्कूल जाए फिर विद्यालय। विद्यालय के बाद विश्वविद्यालय और इस क्रम में पास होने के सर्टिफिकेट एकत्र करता रहे। हाल में एक बच्ची मिली जिसने एक अच्छे स्कूल से पहली कक्षा की पढाई पूरी कर दूसरे दर्जे में गई है। छुट्टियों के दौरान खेल-कूद में उसे अपने स्कूल की सबसे रोचक और महत्वपूर्ण बात याद ई। उसने कहा, चलो पास-फेल खेलें। वह फुदक-फुदक कर घर भर के लोगों की परीक्षा लेकर उन्हें पास और फेल घोषित करती है। दरअसल वह स्कूल में टीचर के अधिकार को नाटक में ही सही, अपने तरीके से अनुभव कर रही है। उसे इस खेल में मजा भी रहा है। सचमुच स्कूल की वर्ष भर की शिक्षा का सारांश है परीक्षा और उसकी अंतिम परिणति है पास या फेल होना। 


परीक्षा इतनी केंद्रीय हो चुकी है कि छात्र के साथ माता-पिता कोई कसर नहीं छोड़ते। कोई चूक नहीं होनी चाहिए। तंत्र-मंत्र, पूजन-हवन, जप-तप, ट्यूशन-कोचिंग, सिफारिश की शरण लेनी हो या फिर सीधे-टेढ़े सेवा-शुल्क देना हो, किसी भी तरह ले-देकर परीक्षा रूपी इस महायुद्ध से निपटने की तैयारियां की जाती हैं और कुछ वीर सूरमा सफल हो जाते हैं, लेकिन एक बड़ी संख्या में मन मसोस कर रह जाते हैं। बच्चों को शिक्षा दिला पाने के गहन संघर्ष के लिए बड़े माद्दे की दरकार होती है। खिर मोक्षदायिनी शिक्षा मुफ्त में तो नहीं मिल सकती। जैसे गर्मियों में फसल पकती है वैसे ही साल-दो साल की पढ़ाई के बाद परीक्षाओं के फलों के निकलने का मौसम ता है। प्रवेश-परीक्षा का भी मौसम ता है और उस दौरान घर-घर में परीक्षा की कसौटी पर खरे उतरने की मुहिम जोरों पर चल पड़ती है। क्या पढ़ा और क्या सीखा, यह अब गौण हो गया है। असली चीज है परीक्षा के अंक। आलम यह है कि इंटरमीडिएट में 97-98 प्रतिशत पाकर भी दिल्ली विश्वविद्यालय में मनचाहे विषय में प्रवेश की कोई गारंटी नहीं है। ऐसी ही स्थिति देश के कुछ अन्य विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों की भी है। स्थिति यह है कि 80-85 प्रतिशत अंक पाने वाले छात्र और उनके अभिभावक चिंतित होते हैं। 


हमने शिक्षा को संस्थानों और उसकी प्रक्रियाओं के औपचारिक बंधन में इस तरह बांधने का उपक्रम किया है कि बचपन से ही शिक्षा का अर्थ ‘पास’ और ‘फेल’ में सिमट कर रह गया है। शिक्षा के औपचारिक कलेवर को मजबूत करने के लिए अनुशासन का सहारा लिया गया और व्यवहार एवं विचार के नियंत्रण के प्रयास किए गए। अंतत: यह सुनिश्चित किया गया कि हर कक्षा में प्रतिलिपियां तैयार हों। वस्तुनिष्ठ परीक्षा का भला हो, जिसने एक जैसी प्रतिलिपियां तैयार करने का काम सरल बना दिया। पिछले वर्षो की तरह इस बार भी सीबीएसई बोर्ड की परीक्षा में अधिकांश विषयों में 90-95 प्रतिशत से अधिक अंक पाने वाले बच्चे काफी बड़ी तादाद में हैं। वे सब के सब ‘जीनियस’हों, ऐसा नहीं है, लेकिन हमने जिस ढंग से ज्ञान को समझने और ंकने की व्यवस्था कर रखी है उसमें यह अजूबा होना स्वाभाविक है।


 शिक्षा की भूमिका तो यह होनी चाहिए कि वह व्यक्ति को उसकी अपनी मौजूदा सीमाओं का सतत अतिक्रमण करना सिखाए। शिक्षित होते हुए व्यक्ति जहां है उससे गे बढ़ने और कुछ नया करने का अवसर मिल सके। उसमें कुछ नया सृजन करने की कांक्षा पैदा होनी चाहिए। जैसे कोई छोटा बच्चा लिखना नहीं जानता। उसने लिखना सीखा, पढ़ना सीखा और फिर उसमें कविता या कहानी लिखने की क्षमता और योग्यता ई। इस तरह उसने शिक्षा के माध्यम से अपनी सीमाओं को पार किया। शिक्षित होने के क्रम में विद्यार्थी न केवल विषय की सीमाओं का विस्तार करता करता है, बल्कि खुद अपनी सीमाओं का भी अतिक्रमण करता है। शायद यह विस्तार वहां तक होता जाता है जहां ज्ञाता और श्रेय का रिश्ता खत्म हो जाता है। इस स्तर पर अनुभव और अनुभवकर्ता दोनों एक हो जाते हैं। श्रेष्ठ सृजन करने वाले प्राय: ऐसा ही अनुभव करते हैं। हम अपने सीमित अस्तित्व में असीम को व्यक्त करते हैं। मानव स्वभाव की सबसे उर्वर विशेषता यह है कि वह सुनम्य-लचीला है। शिक्षा उसके लचीलेपन का प्रयोग करते हुए ‘मानव’ की रचना करती है, जिसमें सीखने की अपार क्षमता विद्यमान है। इसके साथ ही उसमें सृजनशीलता भी होती है।


 इन विशेषताओं से मिलकर वह कितना परिवर्तन कर सकता है और कठिन परिस्थितियों मे भी रहकर क्या कर सकता है, इसका उदाहरण गांधी, टैगोर, लिंकन और न जाने कितने महापुरुषों में देखा जा सकता है। ज भी हम सबके स-पास ऐसे जीवट वाले मिल जाएंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य अपार संभावनाओं का नाम है। शिक्षा इन संभावनाओं के विकास का उपाय है। शिक्षा ‘क्लोनिंग’ नहीं है, परंतु दुर्भाग्य से जो शिक्षा इन संभावनाओं के विस्तार के बदले ज्ञान को वस्तु बनाने की प्रणाली बनती जा रही है। एक क्रिया रूप में शिक्षा विकल्प उपलब्ध कराती है। विकल्प का अर्थ यह है कि शिक्षा व्यक्ति केबौद्धिक, शारीरिक, भावनात्मक, सामाजिक क्षमताओं का मार्ग प्रशस्त करती है। मुख्यधारा की शिक्षा, शिक्षा को वस्तु के अर्थ में प्रयुक्त करती है और डिग्री एवं ग्रेड जैसे पैमानों से मापती है। शिक्षा को उसकी जकड़बंदी से कैसे मुक्त किया जाए? इस प्रश्न का उत्तर तलाशते समय हमें यह ध्यान रखना होगा कि यह जकड़बंदी हमारी संस्थाओं और उनकी पद्धतियों में है। इसके लिए हमें लीक से हटकर पढ़ने-पढ़ाने की विधियों और उनसे जुड़े मॉडल पर विचार करने की जरूरत है। गांधी, अरविंद, टैगोर, जाकिर हुसैन जैसे अनेक चिंतकों ने विकल्प देने वाली शिक्षा का स्वप्न देखा था। वे शिक्षा को कल्पना शक्ति, श्रम, परिवेश, अध्यात्म, चरित्र-निर्माण और रचनात्मकता से जोड़ना चाहते थे। उनके देखे स्वप्न बिखर रहे हैं और हम सब भेड़ चाल वाली शिक्षा को सुदृढ़ किए जा रहे हैं। अब हमारी मानसिकता यह हो रही है कि किस विषय को पढ़ने से कितना बड़ा पैकेज मिलेगा? ज यह कहीं अधिक जरूरी है कि शिक्षा द्वारा मनुष्य की चेतना को जगाया जाए और मनुष्यता को सुरक्षित रखा जाए ।

  -गिरीश्वर मिश्र

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति हैं)


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