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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

MAN KI BAAT : उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ऐसी छुट्टियों की ओर समूचे देश का ध्यानाकर्षण किया है, उनके विचार पर स्वाभाविक ही बहस चली है, रविवार की छुट्टी...........

MAN KI BAAT : उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ऐसी छुट्टियों की ओर समूचे देश का ध्यानाकर्षण किया है, उनके विचार पर स्वाभाविक ही बहस चली है, रविवार की छुट्टी...........

🔵 छुट्टियों की छुट्टी करने का समय

महापुरुष भी साधारण मनुष्य होते हैं। वे अपने सतत श्रम-तप के बल पर असाधारण बनते हैं। सत्य, शिव और सुंदर के नए प्रतीक-प्रतिमान गढ़ते हैं। इतिहास की गति का संवर्धन करते हैं। इतिहास में हस्तक्षेप करते हैं। इतिहास उन्हें अपने हृदय में विशेष स्थान देता है। वे असाधारण होकर भी साधारण बने रहते हैं। असाधरण होकर साधारण बने रहने के लिए अतिरिक्त परिश्रम और साधना की आवश्यकता है। सो उनका यशगान होता है, लेकिन उनके यशस्वी होने का मुख्य कारण तपस्वी होना ही है। तपस्वी ही यशस्वी होते हैं। वे हम सभी को प्रेरित करते हैं। हम उन्हें याद करते हैं, लेकिन उनकी जन्मतिथि या पुण्यतिथि पर अवकाश चाहते हैं। अतिरिक्त श्रम कर्म करने वाले पूर्वजों की स्मृति में नियमित कर्म से छुट्टी दिलचस्प उलटबांसी है। प्रेरणा स्नोत कर्मशील हैं, लेकिन प्रेरणा की तिथि पर छुट्टी। कायदे से उनकी स्मृति में रोजमर्रा के बजाय ज्यादा काम करना चाहिए। परिश्रम को उत्सव बनाना चाहिए और उत्सव को सृजन का अवसर, लेकिन हम छुट्टी चाहते हैं। महापुरुषों के बहाने कर्म विमुखता का आलस्य आत्म विरोधी है और गंभीर रूप में विचारणीय।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ऐसी छुट्टियों की ओर समूचे देश का ध्यानाकर्षण किया है। उनके विचार पर स्वाभाविक ही बहस चली है। रविवार की छुट्टी अंग्रेज लाए थे, लेकिन रविवार उनके चर्च कर्मकांड का दिन है। श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और श्रीकृष्ण प्रीति प्रेम और भारतीय दर्शन के महानायक। इनके जन्मोत्सव समाज में आनंद और मर्यादा रस का आच्छादन करते हैं और बुद्ध से जुड़े उत्सव भी। गांधी भूले बिसरे नायक हैं। गांधी जयंती अब उत्सव नहीं रही। उत्सव होती तो और अच्छा होता। डॉ.अंबेडकर की जन्मतिथि पर बेशक जनआलोड़न होता है, मगर ऐसी तिथियां छुट्टी नहीं सामाजिक उत्सवधर्मिता, समरसता और राष्ट्रीय एकता का अवसर हैं। प्रकृति सतत कर्मरत है। प्रत्येक अणु परमाणु गतिशील है। सूर्य और चंद्र भी छुट्टी पर नहीं जाते, वे प्रतिपल कर्मरत हैं। ऋग्वेद के अनुषंगी ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में सतत् कर्म का संदेश है। बताते हैं कि सोने वाला कलियुग का, जाग्रत द्वापर का, खड़ा हुआ त्रेता का और सतत कर्मरत व्यक्ति सतयुग का प्रतिनिधि है इसलिए चलते रहो-चरैवेति, चरैवेति। यहां युगबोध की नई धारणा है और अवकाश भोग की प्रवृत्ति को सीधी चुनौती भी।

भारत अति प्राचीन राष्ट्र है। सहस्रों पूर्वजों ने सतत कर्म किए। दर्शन और विज्ञान का बोध-शोध किया। कीट-पतंगे और नदी, पर्वत, वनस्पति के प्रति भी संवेदनशील संस्कृति का विकास उनकी ही देन है। आज का भारत पूर्वजों के ही सचेत और अचेत कर्मों का परिणाम है। प्लेटो की किताब ‘रिपब्लिक’ के हजारों बरस पहले यहां वैदिक काल में भी सभा समिति जैसी गणतांत्रिक संस्थाओं का उल्लेख है। राष्ट्रगान का ‘जनगणमन’ उसी स्मृति का पुनर्सृजन है। महापुरुषों की सूची लंबी है। विश्व पटल पर सीजर, सिकंदर, फ्रेडरिक द ग्रेट वीर कहे जाते हैं, लेकिन वैदिक मंत्र द्रष्टा विश्वामित्र, वशिष्ठ, अथर्वा, ऐतरेय और कालांतर में बुद्ध, पतंजलि, शंकराचार्य, नानक, कबीर, रविदास और तुलसी वीर नहीं कुछ और हैं। स्कॉटलैंड के राजा राबर्ट यहूदियों की मोसेस जैसी वीरता भारत में राणा प्रताप की है। वीरता की बात अलग है। नीत्शे का ‘सुपरमैन’ और कार्लाइल का ‘हीरो’ एक जैसे नहीं हैं। योगी अरविंद की धारणा का ‘भावी मानव’ दुनिया के अन्य चिंतकों से भिन्न है। भारत के महापुरुष मार्गदर्शक हैं। युधिष्ठिर ने यक्ष को बताया था, ‘वेद वचन भिन्न-भिन्न। ऋषि अनेक। धर्म तत्व गुह्य है। महापुरुषों का मार्ग सतत् कर्मशीलता ही है। अवकाशभोगी नहीं। इसलिए छुट्टी के आकर्षण से छुट्टी लेना ही राष्ट्रीय कर्तव्य है। बेशक अवकाश का अपना आनंद है, लेकिन यह अवकाशभोगियों को नहीं मिलता। अवकाश का आनंद कठिन परिश्रम का पुरस्कार है।

ऋग्वेद में देवों की प्रीति को रम्य बताया गया है। कहा गया है कि यह सुख परिश्रमी को ही उपलब्ध है। तब भी भारत में सर्वाधिक छुट्टियां हैं। अमेरिकी संघ सरकार में सिर्फ 10 छुट्टियां हैं। पुर्तगाल, यूक्रेन, न्यूजीलैंड, नीदरलैंड की संख्या भी ऐसी ही है। संयुक्त अरब अमीरात में इससे भी कम अवकाश हैं। भारत में 21 सार्वजनिक छुट्टियां हैं और पाकिस्तान, तुर्की और थाईलैंड में लगभग 16 अवकाश ही हैं। जापान, वियतनाम, स्वीडन में भी सिर्फ 15 दिन ही अवकाश हैं। फिनलैंड में 15, स्पेन में 14, लेकिन ब्रिटेन में लगभग 8-9 ही छुट्टियां हैं। भारत उत्सव प्रिय देश है, लेकिन विकास में अग्रणी होने को तत्पर देश में छुट्टियों की संख्या काफी है। छुट्टी राष्ट्रीय उत्पादकता में सेंधमारी है। मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों के अनुसार काम न करना स्वाभाविक प्रवृत्ति है। वेतन आदि सुविधाएं कर्मप्रेरणा हैं, लेकिन रुचिपूर्ण काम सभी को अच्छे लगते हैं। पूर्वजों ने सभी कामों को प्रेय और श्रेय में बांटा है। प्रेय कार्य प्रिय है, लेकिन श्रेय कार्य लोकप्रिय हैं और राष्ट्रीय कर्तव्य भी हैं। राष्ट्र संपदा में वृद्धि का भाग सबको मिलता है इसलिए बेवजह के अवकाश का कोई औचित्य नहीं।

भारत में महापुरुषों की संख्या बड़ी है। राजनीतिक कारणों से इस सूची में लगातार वृद्धि हो रही है। उत्तर प्रदेश में 36 से ज्यादा सरकारी छुट्टियां हैं। शिक्षा क्षेत्र में और ज्यादा। अन्य राज्यों में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है। छुट्टी के औचित्य पर बहस नहीं होती। राजनीति ही निर्णायक है। आम आदमी का छुट्टी में कोई रस नहीं है। उसे बैंक आदि सरकारी दफ्तरों में जाने पर ही छुट्टी का पता चलता है। महत्वपूर्ण सामाजिक राष्ट्रीय उत्सवों की बात दूसरी है। होली, ईद, रक्षा बंधन या यीशु से जुड़े अवकाश परस्पर मिलन का अवसर होते हैं। स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस इतिहास बोध देते हैं, लेकिन उन्हें अवकाश रूप नहीं उत्सवरूप में ही मनाया जाना चाहिए। होली रक्षा बंधन या ईद का अवकाश बढ़ाने में भी कोई हर्ज नहीं। इन अवसरों पर दूरदराज काम कर रह लोग घर आते हैं, वे दूर यात्राएं भी करते हैं। महापुरुषों से जुड़े अवकाशों को उत्सव बनाना चाहिए। कार्यस्थल पर उनके व्यक्तित्व-कृतित्व की चर्चा और फिर नियमित काम। ऐसे अवसरों पर शिक्षण संस्थाओं में छुट्टी से राष्ट्रीय क्षति होती है।

भारत में विशेष कार्यसंस्कृति की आवश्यकता है। राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रों में कठोर परिश्रम की दरकार है। हम विकासशील देश कहे जाते हैं। पूर्ण विकसित हो जाने को बेताब भी हैं। सतत कर्मशीलता का कोई विकल्प नहीं। प्रत्येक व्यक्ति को अपने कार्यक्षेत्र में स्वयं के सर्वोत्तम को प्रकट करना ही चाहिए। राष्ट्र को अवकाश नहीं कर्मशीलता का नया आकाश चाहिए। वामपंथी मानते रहे हैं कि कला, साहित्य और विज्ञान का विकास अवकाशभोगियों ने किया है। अतिरिक्त उत्पादन के कारण मिले अवकाश के कारण सभ्यता-संस्कृति के विकास का विचार झूठा है। भारतीय दर्शन, संस्कृति, सभ्यता, साहित्य और आचार शास्त्र का विकास अतिरिक्त उत्पादन से नहीं, अपितु अतिरिक्त जिज्ञासा और अतिरिक्त श्रम कर्म से ही संभव हुआ है। यहां सतत कर्मनिष्ठा से ही कर्मयोग खिला है। गीता प्रबोधन में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया है कि सतत कर्म से ही जनक आदि ने सिद्धि पाई। मुझे कोई अभाव नहीं और न कोई आवश्यकता तो भी मैं प्रतिपल कर्मरत रहता हूं, लेकिन आज हम छुट्टी चाहते हैं किसी न किसी बहाने।

- हृदयनारायण दीक्षित
[लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं]

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