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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

MAN KI BAAT : बच्चों से ज्यादा तनाव में अभिभावक क्यों! मेरा मानना है कि बच्चों का अपना मनोविज्ञान होता है, जिसे उन्हीं के चश्मे से देख कर समझना चाहिए और उनके बौद्धिक स्तर पर.....

MAN KI BAAT : बच्चों से ज्यादा तनाव में अभिभावक क्यों! मेरा मानना है कि बच्चों का अपना मनोविज्ञान होता है, जिसे उन्हीं के चश्मे से देख कर समझना चाहिए और उनके बौद्धिक स्तर पर.....

बोर्ड की सालाना परीक्षा का समय आ रहा है। विद्यालय, विभाग, अभिभावक और बच्चे सभी तैयारी में जुटे हैं। स्वाभाविक है कि सब पर दबाव होगा, लेकिन बच्चे एक अलग तरीके के तनाव में होंगे। उन्हें परीक्षा पास कर वांछित करियर के योग्य खुद को बनाना है। लेकिन यह भी देखने में आया है कि ऐसे मौके पर बच्चों से अधिक माता-पिता, अभिभावक तनाव में रहते हैं। इसी चिंता में वह अपने बच्चों को बार-बार नसीहत देते रहते हैं, या यूं कहें टोकते रहते हैं।

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि अधिकतर अभिभावक बच्चों को गाइड करने के नाम पर उन पर प्रेशर डालते हैं। ऐसे अभिभावक मानते हैं कि बच्चे के भविष्य के बारे में उनकी जो योजना है, वही पूर्ण सत्य है। बच्चा अभी नादान है, नासमझ है। न तो सही निर्णय ले पाएगा और न उस दिशा में प्रयास कर पाएगा। बच्चा अपना लक्ष्य भूल सकता है, राह से भटक सकता है। अपनी भूमिका में अभिभावक सही हो सकते हैं, एकदम सौ टका।

आखिर उनकी भी अपनी ख्वाहिशें रही हैं, जिंदगी के अधूरे सपने बचे हैं, वे समय के पारखी हैं, अनुभव के धनी हैं। इसलिए बच्चे के मामले में दखल देना उनका परमकर्तव्य है। हर बच्चे की क्षमता अलग-अलग होती है, ग्रहण करने का स्तर भिन्न-भिन्न होता है, बैठकर पढ़ने की सामथ्र्य अपनी-अपनी होती है। पढ़ने की शैली भी जुदा-जुदा होती है, विषय अपने-अपने होते हैं, पसंद के विषय भी अलग-अलग होते हैं। या यूं कहा जा सकता है कि हर बच्चे की प्रकृति और परवरिश में अंतर होता है। ऐसे में सभी एक ही ढंग से पढ़ाई करें ऐसा होना नामुमकिन है। कई बार बच्चे का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा होता है, वह खुद को रिफ्रेश करना चाहता है, लेकिन घर के बड़े उन्हें ऐसा करने से रोक देते हैं। उसे पढ़ाई का धर्म याद दिलाते हैं। ये बात अभिभावक ही नहीं, विद्यालय के शिक्षकों पर भी लागू होती है। इस प्रकार के अंकुश से धीरे-धीरे बच्चा ऊब जाता है। इसे प्रवचन मानने लगता है, खुद को प्रतिकूल परिस्थिति से बचाने के लिए कोई बहाना खोजने लगता है। या फिर नसीहत की संभावना भांप तुरंत किताब खोलकर बैठ जाता है। जिन बच्चों की पढ़ाई ठीक है, पढ़ने की आदत बन चुकी है, विद्यालय में भी अच्छे नंबर आ रहे हैं। उससे शिक्षक और घर के बड़े सभी खुश रहते हैं। उसे कोई नहीं टोकता। इस श्रेणी के अलावा के बच्चों का स्वभाव दो तरह का होता है। एक वह, जो अपना आक्रोश किसी न किसी रूप में निकाल लेता है, यानी बहिमरुखी। ऐसा बच्चा तत्काल दबाव मुक्त हो जाता है, उसकी हरकतों से सयाने लोग खीज सकते हैं, उस पर अपना आदेश न मानने की तोहमत भी जड़ सकते हैं। दूसरे वह, जो अपने बचाव का तरीका नहीं खोज पाता, अपनी बात कह भी नहीं पाता। यानी अंतमरुखी। दूसरे तरह का बच्चा तनाव में आ जाता है। उस पर पियर प्रेशर अथवा साथियों का दबाव रहता है, तो घर के बड़ों के सपने पूरे करने का बोझ भी। एक बात और, ऐसे बच्चे पर पढ़ाई से ज्यादा परफॉर्मेस का तनाव रहता है। यह भी देखने में आता है कि स्कूली शिक्षा से ज्यादा प्रोफेशनल पढ़ाई के दरम्यान यह स्थिति अधिक आ सकती है।

अगर उम्मीद के मुताबिक उपलब्धि नहीं रही तो विद्यालय के शिक्षक क्या कहेंगे, संगी-साथी कैसी प्रतिक्रिया देंगे और घर के बड़े किस रूप में लेंगे, आदि-आदि। ऐसे में उसका मस्तिष्क विचलित हो सकता है। गलत कदम उठाने की सोच सकता है। ठीक यही वक्त है जब उसे संभालना जरूरी होता है। उसके मन की बात सुनने और समझने वाला कोई होना चाहिए। हल्की सी भी मदद उसकी राह बदल सकती है। उसे कामयाबी के शीर्ष तक पहुंचा सकती है। कोई उसे इतना भर याद दिला दे कि कॅरियर के तीन हजार से ज्यादा विकल्प मौजूद हैं। हर बच्चे को एक ही तरह के कॅरियर से खुद को साबित करने की आवश्यकता नहीं। जो भी करो, अपना शत-प्रतिशत लगा कर करो। घर के बड़ों को अपने इरादे से अवगत कराओ, उनकी शुभकामनाएं हासिल करो। उनको अपनी क्षमताओं के बारे में बताओ। सिर्फ दिखावे के लिए नहीं, ईमानदारी से प्रयास करो, पूरी कायनात आपके साथ होगी। सफलता खुद-ब-खुद आपके चरण छुएगी। सफल हो जाओगे तो जो अभी नाराज हैं, वह भी खुश हो जाएंगे। दरअसल बच्चों की मूल प्रकृति खुश रहना है। इसीलिए स्कूल-कालेज में अधिकतर बच्चे तनाव मुक्त रहते हैं। अगर उन पर कोई दबाव रहता है तो वह है पियर प्रेशर। वैसे पियर प्रेशर भी जरूरी है, वही अपनी काबिलियत और रुचि के मुताबिक करियर चुनने के लिए तैयार करता है। अपने साथियों की बातचीत बच्चों को अधिक प्रेरित करती है। इसीलिए अभिभावकों को भी अगर उन्हें गाइड करना है तो उनके साथ घुल-मिल कर रहना होगा, कई दिन तक उनके रूटीन की 24 घंटे मानीटरिंग के बाद ही एक दोस्त की तरह अपनी राय देनी होगी।

ऐसे भी कह सकते हैं कि बच्चों का अपना मनोविज्ञान होता है, जिसे उन्हीं के चश्मे से देख कर समझना चाहिए और उनके बौद्धिक स्तर पर खुद को ढालकर ही उन्हें नसीहत दी जानी चाहिए। तभी बात उनके दिलो-दिमाग पर प्रभाव डाल सकती है। उम्मीद की जाती है, इसे पढ़कर बच्चे और अभिभावक दोनों ही अपने तर्को की कसौटी पर तौलेंगे, कुछ पल खुद से बात कर, इस पर मंथन करेंगे। उनके तराजू में खरा उतर जाए तो अपनी कार्यशैली में सकारात्मक बदलाव कर लक्ष्य हासिल करने के लिए अग्रसर होंगे।

       -जगदीश जोशी

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