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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

मन की बात : सतत और व्यापक मूल्यांकन की प्रक्रिया में शिक्षा का सरोकार एक सार्थक और उत्पादक जीवन की तैयारी से होता है और मूल्यांकन उस आलोचनात्मक प्रतिपुष्टि देने का तरीका होना चाहिए, इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो वर्तमान मूल्यांकन ........

मन की बात : सतत और व्यापक मूल्यांकन की प्रक्रिया में शिक्षा का सरोकार एक सार्थक और उत्पादक जीवन की तैयारी से होता है और मूल्यांकन उस आलोचनात्मक प्रतिपुष्टि देने का तरीका होना चाहिए, इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो वर्तमान मूल्यांकन ........

नवम्बर माह की बात है। शारीरिक अस्वस्थता के चलते एक दिन डॉक्टर के क्लीनिक जाना पड़ा। चूँकि वे जाने-माने चिकित्सक हैं, अतः क्लीनिक में जाकर टोकन नम्‍बर लेना होता है। अपना टोकन लेकर मैं वहाँ-बैठे लोगों का जायजा लेने लगी।

सामने बैठी एक बच्ची और उसकी माँ पर नजर पड़ी। माँ के हाथों में कॉपी थी और बच्ची से वह कुछ प्रश्न पूछ रही थी, प्रश्न में आए शब्दों के स्पेलिंग लिखवाकर देख रही थी। गलती करने पर सभी के सामने उसे डाँटा भी जा रहा था। मैं यह सब देखकर हैरान थी, डॉक्टर के क्लीनिक में इस तरह पढ़ाई, वह भी डाँट-डपट के साथ? कौतुहलवश मैं उनके पास गई। कौन बीमार है? पूछने पर पता चला कि बच्ची को ही दिखाना है, अक्सर सर्दी-बुखार घेर लेता है। क्लीनिक में पढ़ाई क्यों? पूछने पर माँ बोली, ‘क्या करूँ, कल सी.सी.ई. है अँग्रेजी का। आपको तो पता ही है, यहाँ करीब दो घण्‍टे लगते ही हैं। इसलिए यहाँ कल के टेस्ट का रिवीजन करवा रही हूँ।’

‘पर यह बच्ची तो बीमार है न?’ मैंने पूछा। 

‘बीमारी क्या, सर्दी-खाँसी है, ठीक हो जाएगी दवा के एक डोज से।’ 

मैं हैरान थी सी.सी.ई. के विपरीत प्रभाव का अनुमान करके। यह तो एक बच्ची की व्यथा थी, मगर हज़ारों स्कूलों में लाखों बच्चे सी.सी.ई. नामक इस आतंक से जूझ रहे हैं। NCF 2005 और फिर RTE 2009 में सतत व्यापक मूल्यांकन का जिक्र क्या आया, सी.बी.एस.ई. स्कूलों ने उसके सतही अर्थ की कच्ची-सी समझ बना ली और कमर कस ली उसे तुरन्‍त क्रियान्वयित करने की, बिना यह सोचे-समझे कि उसके मूल में निहित भावना आखिर है क्या। सतत का अर्थ लिया गया परीक्षाओं की बारम्‍बारता बढ़ाने से जिसके चलते मासिक परीक्षाओं के स्थान पर अब हर हफ्ते टेस्‍ट लिए जाने लगे। अब टेस्ट होंगे तो पाठ्यक्रम भी होगा ही और शिक्षकों पर उसे पूरा करवाने का दबाव भी होगा। और बात केवल पाठ्यक्रम पूर्ण करवाने की ही नहीं, पाठों का कार्य पूर्ण करवाकर उसे जाँचने की, बच्चों को गृहकार्य देने और वह पूरा हुआ कि नहीं इसे सुनिश्चित करवाने की भी थी। लिहाजा बच्चों पर दबाव कम होने की बजाय बढ़ता ही चला गया। पहले कम से कम शाम को घर से बाहर खेलने का मौका भी मिल जाता था, मगर सी.सी.ई. के आने के बाद तो जीवन ट्यूशन, किताबों और गृहकार्य में ही सिमटकर रह गया। किसी स्कूल में सोमवार को सी.सी.ई. डे बना लिया गया तो किसी स्कूल में शुक्रवार को। एक विषय खत्म और दूसरा विषय चालू। शिक्षक भी नियमों के आगे मजबूर थे, यदि कक्षा में कोई नवाचार करवाना भी चाहते या बच्चों की कठिनाइयों का निदान करने हेतु कोई उपाय सोचना भी चाहते तो सी.सी.ई. मोहलत ही नहीं देता। स्कूलों के परीक्षा विभाग का काम और बढ़ गया। हर हफ्ते नया प्रश्नपत्र छपवाना, उसे व्यवस्थित और गोपनीय तरीके से सुरक्षित रखवाना और तय समय पर बँटवाना, समय पर उत्तर पुस्तिकाएँ जँचवाना,अंकों को ग्रेड में बदलवाना, उन्हें संधारित करना जैसे तमाम कार्य थे, जो अतिभार के रूप में परीक्षा विभाग पर आन पड़े थे। मजे की बात यह कि प्रश्नपत्र अब भी पारम्‍परिक पद्धति से ही बनाए जा रहे थे।

सततता का हश्र सतत चलने वाली परीक्षाओं के रूप में हुआ तो व्यापकता केवल गतिविधियों में सिमटकर रह गई। हर सोमवार कथा-कथन, मंगलवार कविता पाठ, बुधवार भाषण प्रतियोगिता, गुरुवार खेलकूद आदि के लिए आवंटित कर दिए गए और इनमें बच्चों के प्रदर्शन के अनुरूप शिक्षकों द्वारा ग्रेड दिए जाने की प्रक्रिया की जाने लगी। व्यक्तिगत–सामजिक गुणों के मूल्यांकन हेतु कुछ गुण छाँट लिए गए और बच्चों में उन गुणों को देखकर उन्हें श्रेणीबद्ध करने की कवायद शुरू हो गई। क्लब, बालसभा, सर्वे, प्रकल्प आदि तो थे ही। 

जब केन्द्रीय पाठ्यक्रम अपनाने वाले स्कूलों में सी.सी.ई. की कवायद शुरू हो गई तो राज्यों पर भी दबाव बढ़ा, उन्होंने भी इसे तर्ज़ पर मासिक मूल्यांकन, गतिविधियाँ और प्रकल्प आदि की कवायद शुरू कर दी और समझ लिया कि सी.सी.ई. लागू हो गया है। 

एक कहावत है न “नीम हकीम खतरा-ए-जान” शायद सी.सी.ई. के मामले में भी आधा-अधूरा ज्ञान लेकर शुरू की गई प्रक्रियाएँ न केवल घातक सिद्ध हुई हैं वरन चाहे राज्य के स्कूल हो या केन्‍द्र के, सही समझ के अभाव में यह सारी प्रक्रिया केवल ढेर सारे प्रपत्रों के संधारण से अधिक कुछ न कर सकी है। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो नतीजा अब भी ढाक के तीन पात ही रहा है। ऐसी प्रक्रिया से न तो बच्चों को पढ़ने में आने वाली कठिनाइयों के हल निकालने में शिक्षक सफल हो सके हैं, न ही सीखने में उनकी कोई मदद कर पा रहे हैं। 

मैं 2005 में एक जाने-माने सी.बी.एस.ई.स्कूल में अध्यापन कर रही थी। मुझे याद आता है, अचानक एक दिन प्रिंसिपल ने मीटिंग बुलाई और कहा कि इस सत्र से हम सी.सी.ई. करेंगे। हर विषय का टेस्ट हर हफ्ते होगा, उसके लिए पाठ्यक्रम तय होगा और सत्रीय परीक्षाओं की तरह बाकायदा प्रश्नपत्र बनेंगे।  प्रश्नपत्रों में कुछ प्रश्न औसत स्तर के और कुछ एप्लीकेशन स्तर के होंगे। उत्तर पुस्तिकाओं को तुरन्‍त जाँचकर अंक दिए जाएँगे और उन अंकों को ग्रेड में बदलकर लिखा जाएगा। एक पोर्टफोलियो बनेगा और उसमें बच्चे का किया गया काम रखा जाएगा। हममें से कई लोगों ने पूछा, अब भी तो हम यही कर रहे थे, साप्ताहिक न सही, मासिक टेस्ट ले रहे थे, अर्धवार्षिक और वार्षिक परीक्षाएँ भी ले रहे थे, ग्रेड न सही, अंक दे रहे थे। फिर अब यह परिवर्तन क्यों? प्रिंसिपल ने NCF का हवाला देते हुए बात को विराम दे दिया था। मजे की बात यह है कि NCF तो बात करता है शिक्षकों की स्वायत्तता की। शिक्षकों को NCF पढ़ना चाहिए और पढ़कर खुद तय करना चाहिए कि सी.सी.ई. आखिर है क्या, मगर यह बात हमारे स्कूल की प्रिंसिपल के ही नहीं वरन किसी के भी दिमाग में नहीं आई। इस तरह सी.सी.ई. मशीनी ढंग से स्कूलों में लागू हो गया और इसके पीछे का वास्तविक उद्देश्य निरर्थक कवायदों के चलते प्रपत्रों में ही गुम हो गया। कुछ वर्षों बाद जब NCF पढ़ने का मौका मिला तो पता चला कि क्या अपेक्षित था और हम कर क्या रहे थे।

  NCF 2005 आकलन के बारे में क्या कहता है :

🌑 बच्चों का आकलन उनके द्वारा स्कूल में लम्‍बा समय बिताने के बाद ही होना चाहिए न कि सालाना आधार पर। इससे बच्चों के सीखने की गति के बारे में अधिक सम्मान का भाव पैदा होगा। न्यूनतम अधिगम स्तर जैसी योजनाओं ने न केवल साल के अन्‍त में आने वाले नतीजों के सख्त पालन पर जोर दिया है वरन नतीजों को पाठ आधारित और संकीर्ण बना दिया है। 

🌑 शिक्षा का सरोकार एक सार्थक और उत्पादक जीवन की तैयारी से होता है और मूल्यांकन उस आलोचनात्मक प्रतिपुष्टि देने का तरीका होना चाहिए।  इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो वर्तमान मूल्यांकन की प्रक्रियाएँ जो कुछ ही योग्यताओं को मापती और आकलित करती हैं, बिलकुल ही अपर्याप्त हैं और शिक्षा के उद्देश्यों की और प्रगति की सम्‍पूर्ण तस्वीर नहीं खींचती है।  यह प्रक्रिया तभी इस प्रयोजन की पूर्ति कर सकती है जब शिक्षक पढ़ाने के पहले ही न केवल आकलन के तरीकों की तैयारी करें बल्कि मूल्यांकन के मानकों और उसके औजारों की भी तैयारी करें। 

🌑 आकलन का प्रयोजन निश्चित ही सीखने-सिखाने की सामग्री और प्रक्रियाओं पर पुनर्विचार करना और उनमें सुधार करना है। यानि यहाँ आकलन का अर्थ विद्यार्थियों की नियमित परीक्षा से बिलकुल नहीं है बल्कि यह दैनिक गतिविधियों और अभ्यास के उपयोग से ही अधिगम का अच्छा आकलन हो सकता है। 

🌑 शिक्षार्थियों के आकलन की प्रक्रिया में बच्चे की अधिगम की गुणवत्ता और विस्तार पर लिखी गई एक सार्थक रपट को समावेशी होना चाहिए। हमें एक ऐसी पाठ्यचर्या की आवश्यकता है जिसमें सृजनात्मकता, नवप्रवर्तकता और बालक का सम्‍पूर्ण विकास निहित हो। ऐसे में पाठ्यपुस्तक आधारित अधिगम और रटे हुए प्रश्नों को जाँचने के अभ्यास बेकार हैं। हमें मूल्यांकन और प्रतिपुष्टि को पुनः परिभाषित करने और उनके नए मानक ढूँढ़ने की जरूरत है। 

अब यदि इन अनुशंसाओं को ध्यान से समझा जाए तो NCF शिक्षा और मूल्यांकन की सम्‍पूर्ण समझ को ही बदलने की बात कह रहा है। वह बच्चों को कक्षाओं की सीमाओं में बाँधने की बजाय अपनी गति से, अपने तरीके से सीख पाने की आज़ादी की बात करता है। वह यह कहता है कि हर विषय का शिक्षक अपने विषय की प्रकृति से भलीभाँति परिचित हो और उसी के आधार पर पढ़ाने के तरीके विकसित करें अर्थात उस विषय को पढ़ाने का उद्देश्य क्या है, इसे समझते हुए बच्चों में कुछ कौशलों के विकास हेतु शिक्षण करें। वह पाठ्यपुस्तकों की हद से बाहर जाकर अन्य सामग्री से बच्चों को परिचित तो करवा ही सके, पाठ्यपुस्तकों का विश्लेषण करके उनकी कमियों और सीमाओं को भी जान सकें। NCF यह कहता है कि बच्चे का आकलन तभी किया जाए जब वह इसके लिए तैयार हो अर्थात यह आकलन उसमें किसी तरह के भय का संचार न करें। वह यह भी सुझाता है कि आकलन किसी आयोजन की तरह अर्थात मासिक, अर्धवार्षिक या वार्षिक परीक्षाओं की तरह न हो वरन नियमित रूप से कक्षा प्रक्रियाओं में ही गुँथा हुआ हो अर्थात पढ़ाते-पढ़ाते ही शिक्षक बच्चों का आकलन भी करते चले, उनके बारे में कोई राय बनाते चले और उन्हें दर्ज भी करते चले। और जब NCF आकलन के कक्षा प्रक्रियाओं में ही गुँथे होने की बात करता है तो वह शिक्षकों की तैयारी की ओर भी संकेत देता है यानी शिक्षकों का न केवल अपने विषय पर पूर्ण अधिकार हो, वरन उनमें बाल मनोविज्ञान की भी समझ हो, शिक्षण में आने वाली कठिनाइयों को खोज निकालने और उनका निराकरण किस तरह किया जाएगा, यह इस हेतु सक्षम होने का भी संकेत देता है। अर्थात हमारी सेवा पूर्व शिक्षक शिक्षा प्रणाली की मजबूती की बात यहाँ प्रमुखता से उभर कर आती है।  

NCF जब यह अनुशंसा करता है कि हर बच्चा अलग गति से और अलग तरीके से सीखता है और उसे उसी के तरीके से सिखाया जाना चाहिए तो यहाँ वह शिक्षक और विद्यार्थियों के सही अनुपात की भी बात करता है। जाहिर सी बात है कि हर बच्चे पर ध्यान देना, हर बच्चे का अवलोकन करना, उसकी कठिनाइयों को समझना और उनका निराकरण करना ऐसी ही कक्षा में सम्‍भव हो सकता है जहाँ शिक्षक-विद्यार्थियों का अनुपात 1:25 या 30 का हो। सीखना आनन्‍दयक हो, इसका तात्पर्य यह है कि बच्चे जो कुछ सीखे, वह उनके अनुभवों से जुड़े और वे सीखे गए का व्यवहार में भी उपयोग कर सके। 

NCF में जब ऐसी पाठ्यचर्या की बात कही जाती है जिसमें सृजनात्मकता और बालक का पूर्ण विकास निहित हो या जब वह पाठ्यपुस्तकों से बाहर जाकर ज्ञान को वास्तविक जीवन से जोड़ने की बात कहता है तो वह वास्तव में शिक्षक की सम्‍पूर्ण स्वायत्तता की बात कर रहा है अर्थात एक शिक्षक में यह सामर्थ्य हो कि वह न केवल अपनी पाठ्यपुस्तक और पाठ्यचर्या की समीक्षा कर सके, वरन उस पर सवाल उठा सके, उसमें परिवर्तन हेतु उपयुक्त सुझाव भी दे सके। 

NCF वर्तमान परीक्षा प्रणाली को अधिक पारदर्शी और विश्वसनीय बनाने के एक उपाय के रूप में सतत व्यापक मूल्यांकन की बात कहता है जिसमें बच्चे का आकलन विविध तकनीकों द्वारा किया जाएगा अर्थात बच्चे के आकलन का एक मात्र आधार तीन घण्‍टे में ली जाने वाली लिखित परीक्षा मात्र नहीं होगी वरन शिक्षक साल भर उसका विविध उपकरणों और तकनीकों के आधार पर आकलन करेंगे और उसके आधार पर एक विस्तृत रिपोर्ट बनाकर पालकों के साथ साझा करेंगे। यह रिपोर्ट केवल अकादमिक प्रगति का उल्लेख नहीं करेगी वरन उसके व्यक्तित्व के सभी पहलुओं पर प्रकाश डालेगी। यहाँ पुनः वह इस बात की ओर संकेत करता है कि वर्ष भर जिस शिक्षक ने बच्चों के साथ काम किया है, वही बच्चे का सही आकलन कर सकते हैं अर्थात वह परीक्षा लेने, प्रश्नपत्र बनाने और जाँचने की प्रक्रिया में किसी भी बाहरी दखल को खारिज करने की और शिक्षक पर पूर्ण विश्वास रखने की बात करता है।     

NCF प्रश्नपत्रों के प्रारूप पर भी सवाल उठाता है। उसके अनुसार :-

🌕 जब तक परीक्षाएँ बच्चों के पाठ्यपुस्तकीय ज्ञान को याद करने की क्षमता को जाँचती रहेंगी तब तक पाठ्यचर्या को सीखने की ओर मोड़ने के सारे प्रयास विफल होते रहेंगे। 

🌕 आकलन के प्रश्नों को किताब में दी गई जानकारी से आगे बढ़ाने की जरूरत है। ऐसे भी प्रश्नों का इस्तेमाल करना चाहिए जिनके एक से अधिक उत्तर हों और जो बच्चों के समक्ष चुनौती पेश करें।

🌕 सारे प्रश्नपत्र कठिनाई के ऐसी रूपरेखा लिए हुए होने चाहिए कि सभी बच्चे सफलता के स्तर को अनुभव कर पाएँ और उत्तर देने और समस्या सुलझाने की क्षमता में आत्मविश्वास विकसित कर पाएँ।

🌕 यह जरूरी है कि जाँचे हुए उत्तर बच्चों को दिए जाएँ और उनके आधार पर बच्चे अपने उत्तरों को पुनः लिखें और शिक्षक उन पर पुनर्विचार करें ताकि बच्चों के सीखने को सुनिश्चित किया जा सके। 

🌕 जाँच का कार्य बच्चों के सामने किया जाए ताकि बच्चों से यह जानकारी ली जा सके कि ऐसा उन्होंने क्यों लिखा है। इससे परीक्षा का डर व निर्णायक गुण दूर होता है और बच्चे अपनी गलतियों से सीख लेने की क्षमता विकसित करते हैं।  

🌕 बच्चे के साथ की गई प्रत्येक प्रक्रिया की माँग यह होगी कि बच्चे अपने कार्य का स्वयं मूल्यांकन करें और उनसे इस बारे में चर्चा भी की जाए। 

यदि उपरोक्त अनुशंसाओं को ध्यान से देखा जाए तो यहाँ पुनः शिक्षक की स्वायत्तता और क्षमता की बात की जा रही है। शिक्षक इतना काबिल हो कि वह बच्चे को समझ पाए, सीखने-सिखाने की प्रक्रिया की जानकारी रखे, स्वयं को समयानुसार अपडेट भी करता जाए और आकलन के वास्तविक उद्देश्यों को समझकर बच्चों का आकलन कर पाए। सामान्य शब्दों में कहा जाए तो उसे यह पता हो कि कक्षा गतिविधियों के माध्यम से वह बच्चों में किन कौशलों का विकास करना चाहता है, बच्चों में वे कौशल विकसित हुए या नहीं इसके आकलन हेतु उसे किस तरह के प्रश्नपत्र बनाने होंगे, उसमें पूछे जा रहे प्रश्नों का स्वरूप कैसा होगा। उसे यह ज्ञान हो कि एक प्रश्न के एकाधिक उत्तर भी हो सकते हैं जो कि बच्चों के अनुभवों के आधार पर आ रहे होंगे और उन उत्तरों को पढ़कर उनके बारे में बच्चों से बातचीत करके उनका पक्ष जानना भी शिक्षण प्रक्रिया का ही एक हिस्सा होगा। 

यहाँ विचार करने लायक बात यह है कि NCF समस्त शिक्षा प्रणाली में सुधार की बात कह रहा है और आकलन उसका एक छोटा सा हिस्सा है। NCF स्कूल में मूलभूत सुविधाओं से लेकर शिक्षक के सशक्तीकरण, सेवा पूर्व शिक्षक प्रशिक्षण और सेवा कालीन शिक्षक प्रशिक्षण में सुधार की भी बात करता है और फिर आकलन के रूप में सी.सी.ई. को अपनाने की बात कहता है। अर्थात जब बाकी सारी व्यवस्था चाक-चौबन्‍द होगी, तभी सी.सी.ई. वास्तविक रूप से लागू हो सकेगा। 

अब NCF की अनुशंसाओं के बरअक्स हम अपनी स्कूली शिक्षा व्यवस्था को (सरकारी और निजी दोनों ही) देखते हैं तो एक बड़ी खाई नजर आती है। हमारे समाज में शिक्षक का स्थान या पेशा सम्मानजनक नहीं माना जाता, न तो वेतन की दृष्टि से न ही सामाजिक स्तर की दृष्टि से। (कॉलेज के शिक्षक इसमें शामिल नहीं हैं) इसी के चलते एक या दो प्रतिशत लोग ही वास्तव में अपनी रुचि से इस पेशे को अपनाते हैं। बाकी लोग कोई और नौकरी मिलने तक इसे टाइम पास की तरह करते हैं (गोया इसे आराम का और भरपूर छुट्टियों का पेशा माना जाता है और इसके साथ किसी अन्य परीक्षा की तैयारी आसानी से की जा सकती है।) महिलाओं की संख्या भी इस पेशे में इसी भावना के चलते अधिक नजर आती है कि चार पैसे भी मिलेंगे और घर-परिवार की देखभाल भी हो जाएगी। अर्थात इस पूरी सोच के पीछे आराम की नौकरी है यही भाव छिपा है। शिक्षक को अपने आप को अद्यतन(अपडेट) करना चाहिए, नई बहस को जानना चाहिए यह सोच अब तक समाज में आई ही नहीं है। शिक्षकों की बड़ी संख्या ऐसी होगी जिन्होंने पढ़ाई समाप्त करने के बाद कोर्स की किताबों के अलावा शायद ही कोई पुस्तकें पढ़ी हो। 

शिक्षकों को प्रशिक्षण देना हमारे शिक्षा महाविद्यालयों का काम है। मगर सेवापूर्व और सेवाकालीन प्रशिक्षण का जो हाल है वह किसी से छिपा नहीं है। सरकारी संस्थानों का हाल तो बुरा है ही, शिक्षा के निजीकरण के चलते निजी कॉलेजों की भीड़ ने इस स्तर को गिराने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इन संस्थानों का काम धन बटोरकर डिग्री देना मात्र है, शिक्षकों ने उपस्थिति दर्ज करवाई भी या नहीं, काम हुआ या नहीं, शिक्षा के बारे में कुछ जाना या नहीं इससे इन्हें कोई सरोकार नहीं होता।

सरकारी स्कूलों की बात करें तो हालात और भी बुरे हैं। इमारतों की हालत खस्ता, शिक्षक-छात्र अनुपात गड़बड़, विषयानुकूल शिक्षकों का अभाव और उस पर शिक्षकों के मन में अपनी स्थिति को लेकर हीन भावना। 

NCF बार-बार शिक्षक की स्वायत्तता की बात कर रहा है मगर सरकारी स्कूली तंत्र में शिक्षक सबसे बंधनयुक्त प्राणी है जिसे ऊपर से आए हर आदेश का पालन करना है। चुनाव से लेकर जनगणना तक के हर कार्यक्रम में उसकी उपस्थिति ज़रूरी है, भले ही इससे उसकी कक्षाएँ प्रभावित हो रही हों, काम बाधित हो रहा हो। 

निजी स्कूलों में भी हाल कुछ ज्यादा अच्छे नहीं हैं। शायद पाँच प्रतिशत स्कूल वास्तव में इन सारी अपेक्षाओं पर खरे उतरते हैं।

NCF और RTE अपनी अनुशंसाओं में एक और बड़ी ही महत्वपूर्ण बात कहते हैं। वे इन सुधारों को क्रम से लागू करने की बात भी कहते हैं अर्थात नीचे से ऊपर के क्रम में यानी स्कूल का ढाँचा सुधारें, शिक्षकों का स्तर सुधारें, मानसिकता बदलें, पाठ्यपुस्तकें बदलें, प्रशिक्षणों का स्वरूप बदलें, शिक्षक सशक्त हों क्योंकि यह सब हो चुकने के बाद परीक्षा प्रणाली में सुधार स्वयमेव ही आएगा।  पाठ्यपुस्तकों के क्षेत्र में तो NCERT ने कुछ प्रयास किया भी है मगर राज्य अभी भी इससे अछूते हैं।
-द्वारा भारती पंडित, अज़ीम प्रेमजी फाउण्‍डेशन, भोपाल,मप्र      

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1 Comments

  1. 📌 मन की बात : सतत और व्यापक मूल्यांकन की प्रक्रिया में शिक्षा का सरोकार एक सार्थक और उत्पादक जीवन की तैयारी से होता है और मूल्यांकन उस आलोचनात्मक प्रतिपुष्टि देने का तरीका होना चाहिए, इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो वर्तमान मूल्यांकन ........
    👉 http://www.basicshikshanews.com/2016/05/blog-post_268.html

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