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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

मन की बात : पढाई के बोझ तले बचपन की खोज में मैंने पाया कि पाँचवी तक बच्चों को सिर्फ ऐसे ही पास नहीं किया जाता था, बच्चों से मेहनत करायी जाती है और परिणाम यह होता था कि पैरेंट्स को अच्छा रिजल्ट मिलता था जिससे किताबों में बच्चों को बोझ.........

मन की बात : पढाई के बोझ तले बचपन की खोज में मैंने पाया कि पाँचवी तक बच्चों को सिर्फ ऐसे ही पास नहीं किया जाता था, बच्चों से मेहनत करायी जाती है और परिणाम यह होता था कि पैरेंट्स को अच्छा रिजल्ट मिलता था जिससे किताबों में बच्चों को बोझ.........

जब मै शिक्षा महाविद्यालय में बाल मनोविज्ञान का अध्यापन किया करता था तब शिक्षाशास्त्र के विद्यार्थियों को यह बताया जाता था कि बच्चे को करके सीखने का अवसर दिया जाना चाहिये.या फिर बालकेंद्रित शिक्षा को बढाना चाहिये. जिसमें एक एस का मतलब स्टूडेंट,दूसरे एस का मतलब सेलेबस,तीसरे एस का मतलब,स्कूल,और बीच में टी अर्थात टीचर. महात्मा गाँधी ने थ्री एच का सिद्धांत दिया था. जिसमें बच्चें को समाजोपयोगी शिक्षा और स्वामी विवेकानंद ने मानव निर्माण की शिक्षा का जिक्र किया है.आज के इंगलिशमीडियम के विद्यालयों में बच्चों से अधिक उनके पैरेंट्स मेहनत करते नजर आते है ।

परन्तु आज के समय बच्चों को सिर्फ ट्रेनिंग दी जा रही है, सिर्फ इसलिये ताकि वो परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करके सिर्फ ग्रेड हासिल कर सके.दो दशक गुजरने के बाद आज हम जहाँ खडे हुये है उस जगह में सिर्फ पैरेंट्स को ब्रांड नेम के पीछे दौडाया जारहा है.और पैरेंट्स भी आँख बंद करके इन विद्यालयों में विश्वास करके उनके भविष्य को एक कलमघिस्सू बनाने में खुद ही बच्चों को शिक्षा के कारखाने में मजदूर बनने के लिये झोंक देते है ।



आज के हालात यह है कि स्कूल के शुरू होते ही सबसे ज्यादा चिंता बच्चों को यह होती है कि गर्मी में मिले प्रोजेक्ट पूरा कैसे किया जाये.इस चिंता को बढाने का काम खुद बच्चों के पैरेंट्स करते है.पूरी गर्मी की छुट्टियाँ सिर्फ स्कूलों के द्वारा मिला हुआ प्रोजेक्ट पूरा करने में व्यतीत होने के बाद भी यह पूरा होने का नाम ही नहीं लेता है. किसी भी पैरेंट्स की इतनी हिम्मत नहीं होती है कि वो स्कूल से यह सवाल कर सके कि छोटे बच्चों को इस तरह के प्रोजेक्ट देने से क्या लाभ जिनका अधिक्तर काम उनके माता पिता के द्वारा पूरा किया जाता है.वो भी सिर्फ इसलिये किया जाता है क्योंकि उनके बच्चे की कक्षा में अच्छी पोजीशन बनी रहे, पर इस परिस्थिति में हर नन्हा मुन्हा बच्चा अपनी पढाई पर दिन रात रोता है.उसे खेलने कूदने के लिये भी अपने माता पिता से भीख मांगना पडता है.जैसे मजदूर अपने मालिक से गिडगिडाता है पर उसे निराशा ही हाथ लगती है ।



पाँचवी तक बच्चों को सिर्फ ऐसे ही पास नहीं किया जाता था.बच्चों से मेहनत करायी जाती है.और परिणाम यह होता था कि पैरेंट्स को अच्छा रिजल्ट मिलता था.किताबों में बच्चों को बोझ नहीं महसूस होता था. बस्तों का बोझ भी बहुत कम होता था.गर्मी में दो महीने की छुट्टी भी मिलती थी. और जब जुलाई से स्कूल शुरू होता था तो उनके चेहरे में मुस्कान होती थी.और सबसे बडी बात स्कूल में पढाई के घंटे भी कम हुआ करते थे.पैरेंट्स के जेब पर डाँका भी नहीं पडता था.पर आज दो दशक के बाद विद्यालय शिक्षा उद्योगों में बदल गये है. बस्तों का बोझ किसी पल्ले दार के बोरे से कम नहीं है. बच्चों के बीच में कम बल्कि उनके पैरेंट्स में अधिक काप्टीशन होता है ताकि उनके बच्चे से उनका नाम समाज में कम ना हो जाये.बच्चों को हर तरफ का विकास करने केलिये तीन चार ट्यूशन दिलाये जाते है.स्कूल से ज्यादा फीस ट्यूशन वाले ले जाते है. बच्चों को प्रोजेक्ट से ज्ञान मिला हो या ना मिला हो पर बच्चों की माँओं को अपने पढाई के दिन याद जरूर आ जाते है.इन विद्यालयों में शिक्षा का अधिकार अपने लाचार होने पर चींखता रहता है. विद्यालयों की फीस में बहुत सा भाग अप्रत्यक्ष रूप से छिपा होता है ।



बाल केद्रित शिक्षा,करके सीखना,और मानव निर्माण की शिक्षा,जैसे विचार और नीतियाँ अब सिर्फ शिक्षा शास्त्र की किताबों में गुम हो गयी है.सीसीई पद्धति पर बच्चों का ऐकेडमिक विकास शून्य हो जाता है.बच्चों में पासिंग प्रतिशत तो बढ जाता है पर प्रतियोगी परीक्षाओं में उनका परिणाम औसत से भी कम होता है.आज के समय की माँग है कि बच्चों को स्किलफुल बनाया जाये.ना कि कोर्स को रटा कर परीक्षा पास करने के ट्रेंड किया जाये.इसके लिये सरकार,शिक्षा विशेषज्ञो,और शिक्षा अनुसंधान परिषद को कदम बढाना ही होगा ।



आज के समय के पैरेंट्स को अपनी अपेक्षाये सीमित करनी चाहिये.बच्चों को अपनी आयु और समय के अनुसार विकास करने का अवसर देना चाहिये.वर्ना हम सब जानते है कि यदि अंकुरित बीज को किसान ज्यादा खाद,पानी देता है तो फसल की उपज बोये गये बीज के बराबर भी नहीं हो पाती है. आइये बच्चों को एक स्वस्थ वातावरण पढाई के लिये दें ना कि उन्हें मजदूर या रोबोट बनाकर अपनी अपेक्षाओं को उन पर लादें.निर्णय हम सब को लेना है कि हम बच्चों को ज्ञान देना चाहते है या मानसिक मजदूरी करवाना चाहते है ।

    - लेख अनिल अयान,


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  1. 📌 मन की बात : पढाई के बोझ तले बचपन की खोज में मैंने पाया कि पाँचवी तक बच्चों को सिर्फ ऐसे ही पास नहीं किया जाता था, बच्चों से मेहनत करायी जाती है और परिणाम यह होता था कि पैरेंट्स को अच्छा रिजल्ट मिलता था जिससे किताबों में बच्चों को बोझ.........
    👉 http://www.basicshikshanews.com/2016/01/blog-post_915.html

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