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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

मन की बात : प्राथमिक शिक्षा की अपंग दीक्षा है क्योंकि शासन का आदेश हर विद्यालय मानता है जिसके अनुसार हर बच्चे को उत्तीर्ण करना आवश्यक है, जैसे यह अधिकार उन्हें जन्म से ही शासन दे चुका है कि वह प्राथमिक.................

मन की बात : प्राथमिक शिक्षा की अपंग दीक्षा है क्योंकि शासन का आदेश हर विद्यालय मानता है जिसके अनुसार हर बच्चे को उत्तीर्ण करना आवश्यक है, जैसे यह अधिकार उन्हें जन्म से ही शासन दे चुका है कि वह प्राथमिक.................


माँ हर बालक की प्रथम गुरु होती है।वह हर उस बात को अपने बच्चे को सिखाती है जिससे उसकी जीवन शैली सर्वोत्तम बन सके।बालक घर की दहलीज पार कर ज्ञानार्जन के लिये प्राथमिक विद्यालय के द्वार में दस्तक देता है। यहीं पर वह साक्षर होता है,यहीं से उसे शिक्षा का प्रमाण पत्र प्रदान किया जाता है। आज के समय में वह प्रमाण पत्र हर बालक के लिये उपलब्ध है।इसके वितरण में किसी प्रकार की भी अड़चन नहीं है।क्योंकि शासन का आदेश हर विद्यालय मानता है जिसके अनुसार हर बच्चे को उत्तीर्ण करना आवश्यक है, जैसे यह अधिकार उन्हें जन्म से ही शासन दे चुका है कि वह प्राथमिक शिक्षा में उत्तीर्ण तभी से हो जाता है जब से उसे अक्षर ज्ञान आना प्रारंभ हो जाता है।

मुझे वह समय अच्छी तरह याद है जब मै पाँचवीं और आठवी की परीक्षा देने किसी शासकीय विद्यालय में देने जाता था। उस समय प्राथमिक शिक्षा का अस्तित्व सिर्फ साक्षर करना ही मात्र नहीं था, बल्कि बच्चे को ज्ञानार्जन का अवसर देना भी था।उसका उचित मूल्याँकन करना भी उसके उत्तीर्ण होने में शामिल हुआ करता था।उस समय में ज्यादा शिक्षा अभियान या शिक्षा मिशन नहीं चलते थे।ना ही शिक्षा गारंटी शालाओं की संख्या अधिक थी।बाकायदे परीक्षा के लिये बच्चे की तैयारी उसका शिक्षक और पालक दोनो करवाते थे और उसके उत्तीर्ण होने के बाद ही छठवीं कक्षा में एडमीशन होता था। परन्तु समयसापेक्ष परिवर्तनों के चलते प्राथमिक शिक्षा अब साक्षरता मूलक शिक्षा में परिवर्तित हो गयी है।एक समय था जब पाँचवीं पास करना कठिन होता था। बच्चे दिन रात एक करके परीक्षा की तैयारी की जाती थी।परन्तु जैसे जैसे परीक्षा परिणाम बिगडने लगे, वैसे वैसे सरकार का सरकारी शिक्षकों से मोहभंग होने लगा या यह करें कि प्राथमिक शाला के शिक्षक शिक्षिकाओं के कौशल से यकीन हटने लगा और उसके चलते जितने प्रवेशित उतने उत्तीर्ण की परंपरा का निर्वहन प्रारंभ हो गया।और यह काम पाँचवी क्या आठवीं तक की कक्षाओं के विद्यार्थियों के लिये भी लागू कर दिया गया।




आज की वास्तुस्थिति यह है कि ये परीक्षायें जो कि जिला स्तरीक्ष शिक्षा विभाग के अधीनस्थ आयोजित होती थी,वो अब विद्यालयीन स्तरीय हो चुकी हैं।परीक्षा सिर्फ कापी भरने की खाना पूर्ति तक सीमित होकर रह गई है क्योंकि वार्षिक परीक्षाफल शत प्रतिशत लाना एक मात्र ध्येय हो चुका है। उस समय के मोह भंग का आधार पूर्णतः निराधार था।वास्तविकता यह है कि शिक्षक मेहनत तब करेगा जब उसे पढाने का अवसर मिलेगा। वो सुबह से शाम तक विभागीय कार्यों में उलझा रह जाता है।जो काम कार्यालय सहायक और लिपिक का है उसे सरकारी शिक्षक और शिक्षिकायें कर रहीं है तब इन परिस्थितियों में  गुणवत्तायुक्त प्राथमिक शिक्षा कहाँ से आ पायेगी।आज की वर्तमान स्थिति में समग्र आई डी इसका सबसे बडा उदाहरण शिक्षा विभाग के पास है जिसके अंतर्गत विद्यालय के शिक्षक शिक्षिकाओं की प्राथमिकता यह पहले है बाद में पढाना क्योंकि इसमें ऊपर से पूर्ण करने का ज्यादा दबाव है।


सर्व शिक्षा अभियान,सब पढे सब बढे,और शिक्षा का अधिकार दिग्भ्रमित हो चुके हैं,दूसरे अर्थों में साक्षरता के चारो तरफ चक्कर लगाते नजर आते हैं।हमें इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिये कि यदि विद्यालयीन शिक्षा की प्रथम सीढी में ही रेवडी बाँटी जायेगी तो उत्पाद गुणवत्ताहीन ही निकलेगा।और उसका परिणाम यह निकलता है कि कमजोर बच्चे दसवीं की परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने के भी काबिल नहीं बन पाते हैं। अब इस स्तर पर शत प्रतिशत उत्तीर्ण का मिशन शून्यतम स्तर पर पहुँच जाता है।




अब शिक्षा के झंडावरदारों को समझना होगा की आज के समय के जितने भी शिक्षक शासकीय सेवा में आ रहें है वो अतियोग्य और गुणवत्ता हेतु दी गई परीक्षा पास करके आ रहें हैं वो पाँचवीं और आँठवी पास पुराने जमाने के मास्टर साहब नहीं हैं।यदि इनकी योग्यता का इस्तेमाल आने वाली पीढी को ज्ञानार्जन हेतु नहीं किया जा रहा है तो इसके लिये दोषी कौन है।सरकार के ऐसे बहुत से विभाग है जिसमें कार्यरत कर्मचारियों का आने वाली पीढी के भविष्य से कोई लेना देना नहीं हैं यदि शिक्षकों की बजाय अन्यत्र कामों के लिये उन व्यक्तियों की सेवायें ली जायेगीं तो शिक्षकों का समय सही जगह लग पायेगा।परीक्षा नीतियों के बदलाव की नितांत आवश्यकता समाज को महसूस होती है।यदि प्रारंभ से ही उत्तीर्ण करने की अनिवार्यता खत्म कर दी जायेगी तो बच्चा पढेगा भी और शिक्षक पढायेंगें भी। सरकार की पहल ही शिक्षकों की योग्यता का सही मूल्याँकन और आने वाली पीढी के द्वारा उपार्जित ज्ञान को सही दिशा निर्धारित करेगा।
      -सौजन्य अनिल अयान जी


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  1. 📌 मन की बात : प्राथमिक शिक्षा की अपंग दीक्षा है क्योंकि शासन का आदेश हर विद्यालय मानता है जिसके अनुसार हर बच्चे को उत्तीर्ण करना आवश्यक है, जैसे यह अधिकार उन्हें जन्म से ही शासन दे चुका है कि वह प्राथमिक.................
    👉 http://www.basicshikshanews.com/2016/01/blog-post_415.html

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