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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

मन की बात (Man Ki Baat) : अंधेरे में बच्चों का भविष्य जा रहा है क्योंकि सरकारी उदासीनता के कारण समाज में इन स्कूलों के प्रति लोगों का यह नजरिया यह है कि........

मन की बात (Man Ki Baat) : अंधेरे में बच्चों का भविष्य जा रहा है क्योंकि सरकारी उदासीनता के कारण समाज में इन स्कूलों के प्रति लोगों का यह नजरिया यह है कि........

अज्ञान एक राक्षसी शक्ति है और हमें डर है कि यह कई त्रासदियों का कारण बनेगी, इतिहास ने मार्क्स के इस कथन को कई बार सत्यापित किया है। आज भी हमारे समाज में व्यापत अंधविश्वास, कूपमंडूकता तथा लगातार बढ़ते अपराधों के पीछे शिक्षा की कमी से कोई इनकार नहीं कर सकता। शैक्षिक ज्ञान लोगों को आत्मनिर्भर बनाता है, उनके आलोचनात्मक विवेक को विकसित करता है, जिससे वह किसी वस्तु, विचार के बारे में स्वयं कोई तार्किक फैसला ले सके।

अत: किसी देश के बेहतर भविष्य के लिए यह जरूरी है कि बचपन से ही बच्चों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से शिक्षित किया जाए। अपने देश के नेता हमेशा कहा करते हैं कि बच्चे इस देश का भविष्य हैं, पर हालत यह है कि देश का हर दूसरा बच्चा स्कूल नहीं जा पाता है।हमारे देश में शिक्षा एक उत्पाद है, अन्य उत्पादों की तरह यह भी बाजार के हवाले है, इसे भी हासिल करने का अधिकार केवल उनका है, जो खरीदने की क्षमता रखते हंै, स्पष्ट है जिसके पास जितना ज्यादा पैसा होगा, वह उतनी बेहतर शिक्षा खरीदेगा, जिनके पास नहीं होगा, उनके लिए स्कूलों के दरवाजे बंद होंगे। 2011 जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में 14 वर्ष से कम उम्र के सात करोड़ तेरह लाख बच्चों में तीन करोड़ पैंतालिस लाख बच्चे स्कूल जा ही नहीं पाते हैं, जो जाते भी हैं, उनमें से पचास फीसदी पैसों की कमी के कारण आठवीं तक ही शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं। सौ में से सात बच्चे ही उच्च शिक्षा हासिल कर पाते हैं ।

गलियों मे कुकुरमुत्ते की तरह खुले प्राइवेट स्कूलों में शिक्षकों से काम तो कारखाने के मजदूर की तरह लिया जाता है, पर जो वेतन दिया जाता है, उसमें परिवार का गुजारा तो दूर उस व्यक्ति का गुजारा भी मुश्किल से ही हो सकता है। दरअसल, उनकी स्थिति मजदूरों से भी दयनीय होती है, 15 दिनों मजदूरी का उनके वेतन से ज्यादा होती है। यहां शिक्षकों की योग्यता का कोई पैमाना नहीं होता। प्रबंधन न्यूनतम वेतन पर बच्चों को पढ़ाने के नाम पर रटाने व कुछ कार्यवाहियां कराने की योग्यता के आधार पर नियुक्त करता है, इसके बावजूद बहुत कम स्कूलों में सभी विषयों के शिक्षकों की नियुक्ति होती है। कई बार दो-तीन कक्षा के छात्रों को साथ में एक ही शिक्षक द्वारा पढ़ा दिया जाता है। अधिकतम निजी घरों में बने स्कूलों में पीने के पानी व शौचालय जैसी मूलभुत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं होती हैं।

लेकिन फीस जमा करने में देरी होने पर कमरे में बंद करना, धूप में खड़ा करना व धमका कर बच्चों को पीटना यहां आम है।सरकारी स्कूलों की दुर्दशा से अपरिचित लोग यह सवाल पूछ सकते हैं कि इतनी भयंकर स्थिति के बावजूद प्राइवेट स्कूलों में बच्चों की और देश में ऐसे स्कूलों की संख्या क्यों बढ़ रही है? पर सरकारी विद्यालयों से परिचित लोग जानते हैं कि इन स्कूलों में शिक्षक जाते ही नहीं, यदि जाते भी हैं तो बच्चों को पढ़ाने के बजाय अपना टाइमपास करते हैं।

सरकारी योजनाएं जो बनती हैं, वह बच्चों तक सरकारी अफसरों व तथाकथित जनप्रतिनिधियों के जूठन के रूप में ही पहुंचती हैं। मिड-डे-मिल योजना पर सरकार अपनी पीठ ठोकते नहीं अघाती, जब्कि बच्चों के खाने में सांप, छिपकली आदि मिलते रहते हैं और ऐसी घटनाएं अखबारों की सुर्खियां बनती रहती हैं। सरकार इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के भविष्य के प्रति कितनी चिंतित है, यह इसी बात से समझा जा सकता है कि अध्यापकों पर बच्चों को पढ़ाने से ज्यादा सरकारी कार्यक्रमों (जनगणना, मतदान) को पूरा कराने का दबाव होता है।

सरकारी उदासीनता के कारण समाज में इन स्कूलों के प्रति लोगों का यह नजरिया यह है कि जिनके बच्चे इन विद्यालयों में पढ़ते हैं, उन्हें समाज में आर्थिक व मानसिक तौर पर बेहद पिछड़ा हुआ समझा जाता है। इसीलिए बेहद गरीब अभिभावक भी यथासंभव अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजते हैं, जहां स्थिति थोड़ी बेहतर होती है। हमारे देश के ज्यादातर स्कूल ऐसे हैं, पर सभी नहीं। यहां ऐसे भी स्कूल हैं, जहां शिक्षकों को उनकी विशेषज्ञता के आधार पर अच्छा वेतन दिया जाता है। बच्चों को वातानुकूलित स्मार्ट क्लासों में आधुनिक तकनीक व वैज्ञानिक प्रणाली से पढ़ाया जाता है। शारीरिक विकास के लिए तैराकी व घुड़दौड़ सहित सभी तरह के खेलों की सुविधाएं उपलब्ध होती है। संगीत व कला के विषेष कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।

लेकिन यह स्कूल केवल उन्हीं बच्चों के लिए है, जिनके अभिभावकों के पास पैसा हो, इसीलिए यहां केवल अमीरों के बच्चे पढ़ते हैं, यही बड़े होकर मुख्य सरकारी पदों तक पहुंचते हैं या डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक बनते हैं।सरकारी विद्यालयों की दुर्दशा व शिक्षा के बाजारीकरण के लिए पूरी तरह से सरकार जिम्मेदार है। शायद सरकार चाहती है कि गरीबों के बच्चे केवल इतना ही पढ़े कि फैक्ट्रियों को मजदूर और क्लर्क मिलते रहें। आज बच्चों की शिक्षा ही नहीं, उनका भविष्य भी पूरी तरह उनके अभिभावकों की आर्थिक क्षमता पर निर्भर है, नतीजा यह है कि देश के तीन चौथाई बच्चों का भविष्य अंधेरे में है।

हमारे देश के शासक जिस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, वहां ये हालात अप्रत्याशित कतई नहीं, बल्कि शिक्षा पर हावी बाजार और बद्तर हालातों की चेतावनी दे रहे हैं। पिछले दो दशकों में बढ़ती महंगाई का प्रभाव शिक्षण संस्थानों पर भी पड़ा है, जिससे शिक्षा लगातार महंगी हो रही है तो दूसरी तरफ विभिन्न कोसोंर् की सीटें भी घटी हैं। जाहिर है, इससे गरीब बच्चों का उच्च शिक्षा हासिल कर पाना और मुश्किल हो जाएगा।
            सौजन्य : सत्येन्द्र सार्थक

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