logo

Basic Siksha News.com
बेसिक शिक्षा न्यूज़ डॉट कॉम

एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

मन की बात : एक शिक्षक का पैगाम "शिक्षकों के नाम" ; हर दौर में ऐसे शिक्षक होते हैं जो ‘कुछ बच्चों’ को पूरी क्लास....…..….

क्या आप भी दो-तीन बच्चों को पूरी क्लास समझते हैं?

हर दौर में ऐसे शिक्षक होते हैं जो ‘कुछ बच्चों’ को पूरी क्लास मानते हैं। ऐसी मान्यता शिक्षण प्रक्रिया के लिए एक खतरे के रूप में सामने आती है। इसके कारण कुछ बच्चों का शैक्षिक स्तर और प्रदर्शन तो बेहतर होता है, मगर बाकी बच्चों का क्या होता है? आइए विचार करते हैं।

खास बच्चे’ यानी पूरी क्लास

सबसे पहले बात करते हैं दो-तीन बच्चों पर ध्यान देने के खतरे के बारे में। अगर दो-तीन बच्चे किसी टॉपिक को समझ जाते हैं तो आप मान लेते हैं कि बाकी बच्चों को भी आपकी बात समझ में आ गई है। अगर (भूल से या आदतन) आप भी ऐसा करते हैं तो शायद सतर्क होने की जरूरत है। किसी भी स्कूल में पढ़ाते समय शिक्षण प्रक्रिया की बहुत सी बारीक बातों में कंटेंट, कम्युनिकेशन और चाइल्ड साइकॉलाजी की समझ एक बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

इस बात को हवा में उड़ाते हुए शायद आप कहें, “अरे! हम तो छोटी कक्षाओं को पढ़ाते हैं वहाँ ऐसी बड़ी-बड़ी बातों के लिए कोई जगह नहीं है। हमारे स्कूल में आने वाले बच्चों की स्थिति शहर के बच्चों और विदेशी बच्चों से बहुत अलग है।”

आपकी बात सौ फीसदी सही है मगर आपके स्कूल में पढ़ने के लिए आने वाले छात्र-छात्राएँ बच्चे ही हैं इस बात से तो आप इनकार नहीं करेंगे न। अगर वे बच्चे हैं तो बच्चों की मानसिक बुनावट को समझना जरूरी है। उनके व्यवहार को समझना जरूरी है कि वे किस तरह से अपने परिवेश के साथ एक रिश्ता बनाते हैं। बच्चे आखिर किस तरह से किसी सवाल के समाधान के कैसे अलग-अलग तरीके से सोचते हैं। और सीखने के लिए विशिष्ट तरीका अपनाते हैं।

हर बच्चा अपने तरीके से सीखता है

कोई बच्चा बहुत से लोकप्रिय तरीके से सीखता है तो कोई बच्चा अपने विशिष्ट तरीके से किसी विषय को ग्रहण करता है और अपने तरीके से उस पर अपनी समझ का निर्माण करता है। इसी सन्‍दर्भ में बच्चों के मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है। मनोविज्ञान को मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों और व्यवहार के वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में देखा जाता है। इसी नजरिये से शिक्षा मनोविज्ञान को भी क्लासरूम के व्यावहारिक परिदृश्य के सन्‍दर्भ में देखने की आवश्यकता है।

यहाँ गौर करने वाली बात है,  “स्कूल में बच्चों को पढ़ाते समय केवल कुछ बच्चों पर ध्यान देने से हम बच्चों का वास्तविक आकलन नहीं कर पाते कि वे क्या सीख रहे हैं? उनको किसी बात को समझने में कहाँ दिक्कत हो रही है? किस बच्चे को किस तरह की मदद की जरूरत है। किस बच्चे की क्या खूबी है। किस बच्चे की प्रगति सही दिशा में हो रही है। कौन सा बच्चा लगातार बेहतर प्रदर्शन कर रहा है और उसे आगे बढ़ने के लिए स्वतंत्र रूप से पढ़ने और काम करने के ज़्यादा मौके देने की जरूरत है।”

बतौर शिक्षक क्लासरूम में हमारा सभी बच्चों से संवाद हो और हम आखि‍री बच्चे तक पहुँच सकें यह सुनिश्चित करना चाहिए। इस बारे में एक नीति का विशेषतौर पर उल्लेख किया जाता है कि कोई भी बच्चा छूटे नहीं। अगर हम प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान केन्द्रित करें तो पहली कक्षा में पढ़ने वाले कम उम्र के बच्चों (अंडर एज) के सीखने की रफ्तार बाकी बच्चों की तुलना में फर्क होती है मगर उसका पहली कक्षा में नामांकन उस बच्चे के भविष्य को अँधेरे में धकेले देगा। मगर यह बात उसी शिक्षक को समझ आएगी जो उस बच्चे के व्यवहार को समझने की कोशिश करेगा।

बच्चों को बच्चा समझें

अगर बच्चों को पढ़ाते समय उनको डाँटते हैं तो स्कूल में आने वाले नए बच्चों पर क्या असर पड़ता है? वे अपने बड़े भाई-बहन के पास क्यों बैठते हैं? मिसाल के तौर पर स्कूल आने वाली एक छोटी लड़की जिसका उच्चारण बहुत साफ है, जिसकी आवाज बहुत मीठी है जो अभी स्कूल के माहौल से परिचित हो रही है। स्कूल नाम की संस्था में ढलने की कोशिश कर रही है, अगर उसको न सीखने के लिए डाँटा जाता है, उसके ऊपर गुस्सा किया जाता है और वह रोती है तो इसके लिए शिक्षक की बच्चों को बच्चा न समझने वाली परिस्थिति ही ज्‍यादा जिम्मेदार है।

किसी कम उम्र के बच्चे को हम न सीखने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया सकते। एक शिक्षक को बच्चों के आँसू और बच्चों की खुशी दोनों के लिए सोचना चाहिए।

क्यों गिरता है अधिगम स्तर?

अगर कोई शिक्षक कक्षा के कुछ बच्चों पर ही ध्यान देते हैं तो ऐसी स्थिति में क्या होता है? सारे बच्चों की जिम्मेदारी से आप मुक्ति पा लेते हैं और आपका पूरा ध्यान केवल ‘खास बच्चों पर केन्द्रित हो जाता है। ऐसे में आप कक्षा की सफलता को उन दो बच्चों की सफलता का पर्याय मान लेते हैं, जिसका परिणाम क्लासरूम में बैठने वाले बाकी बच्चों की उपेक्षा के रूप में सामने आता है।

इसका असर पूरी कक्षा के लर्निंग लेवल या अधिगम स्तर पर भी पड़ता है। इसके कारण ‘खास बच्चों’ (तीन-चार बच्चों) के सीखने का ग्राफ तो ऊपर बढ़ता है लेकिन अन्य बच्चों के सीखने का ग्राफ तेजी से नीचे गिरता है, जिसके कारण पूरी कक्षा का औसत प्रदर्शन सामान्य से बहुत नीचे चला जाता है।

अपने प्रोफेशन के प्रति समर्पित शिक्षक को ऐसी स्थिति संतुष्टि और खुशी नहीं दे सकती क्योंकि उसे यह बात महसूस होगी कि मैंने सभी बच्चों के साथ समान व्यवहार नहीं किया है।

पूर्वाग्रहों से बचना जरूरी

इसके साथ ही बच्चों के बारे में पूर्वाग्रहों का सवाल भी सामने आता है। अगर हम बच्चों के बारे में राय बना लेते हैं कि ये बच्चे तो जंगली हैं। आदिवासी हैं। गाँव के बच्चे हैं। इनके घर वालों की इनकी कोई पड़ी नहीं है। इनको भी घर जाने के बाद पढ़ाई से कोई मतलब नहीं होता। ये पढ़ना नहीं सीख सकते। इनको सिखाने के लिए मेहनत करना बेकार है तो ऐसी सोच का असर कभी-कभी काम के जज्बे और तरीके को भी प्रभावित करता है। ऐसे में इस तरह के विचारों से आजाद होकर काम करना और बच्चों के बारे में खुद का नए तरह का नजरिया बनने के लिए अनुभवों की खिड़की को खुला रखना मददगार होता है।

खुद भी सीखते रहें

बतौर शिक्षक आप बच्चों के पठन कौशन, समझ निर्माण व जीवन के प्रति एक व्यापक दृष्टिकोण का निर्माण कर रहे होते हैं। अपने व्यवहार से बच्चों की जिंदगी में एक छाप छोड़ रहे होते हैं। ऐसे में हमें खुद को वक्‍त के साथ अपडेट करने की जरूरत होती है। इसके लिए निरन्‍तर पढ़ना, लोगों से संवाद करना, शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले भावी बदलावों को समझना बेहद जरूरी है। ताकि आप समय के साथ कदमताल करते हुए चल सकें और भावी नागरिकों के निर्माण का काम ज्यादा जिम्मेदारी और सक्रियता के साथ कर सकें। इस बारे में संक्षेप में कह सकते हैं कि बतौर शिक्षक हमें खुद भी लगातार सीखने का प्रयास जारी रखना चाहिए।
~वृजेश सिंह के ब्‍लाग एजूकेशन मिरर से साभार।

Post a Comment

1 Comments

  1. मन की बात : एक शिक्षक का पैगाम "शिक्षकों के नाम" ; हर दौर में ऐसे शिक्षक होते हैं जो ‘कुछ बच्चों’ को पूरी क्लास....…..….
    >> READ MORE @ http://www.basicshikshanews.com/2015/10/blog-post_542.html

    ReplyDelete