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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

मिड डे मील का बजट कई छोटे मुल्कों के वार्षिक बजट से भी ज्यादा है परन्तु कुपोषित बच्चों को सब्जी, दाल, रोटी-चावल की जरूरत है न की………

मिड डे मील का बजट कई छोटे मुल्कों के वार्षिक बजट से भी ज्यादा है परन्तु कुपोषित बच्चों को सब्जी, दाल, रोटी-चावल की जरूरत है न की…………

बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कुछ संस्थाओं के माध्यम से अपने देश में डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों को बाजार में उतारने का दबाव बनाया है। मिड डे मील जैसी महत्वाकांक्षी योजना को हथियाने के अलावा बच्चों का कुपोषण दूर करने के बहाने डिब्बाबंद भोजन के बड़े बाजार पर कब्जा जमाने का खेल शुरू हो चुका है। डिब्बाबंद भोजन बनाने वाली कंपनियों ने चिकित्सा क्षेत्र में शोध, प्रशिक्षण और गरीब मुल्कों को चिकित्सा सेवा उपलब्ध कराने के बहाने कुछ संस्थानों का निर्माण कर लिया है। वे गरीब मुल्कों की सरकारों को सीधे प्रभावित करने के बजाय सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से हस्तक्षेप कर रही हैं। ये संस्थाएं समझा रही हैं कि कुपोषण से लड़ने के लिए डिब्बाबंद भोजन जरूरी है। मिड डे मील का बजट कई छोटे मुल्कों के वार्षिक बजट से भी ज्यादा है। ऐसे में अगर ये संस्थान स्कूलों में मिड डे मील बेचने लगें, तो उनका मुनाफा आसानी से समझा जा सकता है।

वर्ष 2013 से ताजिकिस्तान में काम कर रही एक संस्था वहां की महिलाओं में खून की कमी, बच्चों के कुपोषण दूर करने के नाम पर डिब्बाबंद भोजन का कारोबार शुरू करवा चुकी है। मोजांबिक, नाइजीरिया जैसे गरीब देश इनकी गिरफ्त में आ चुके हैं। बांग्लादेश ने अभी डिब्बाबंद भोजन पर रोक लगा रखी है। श्रीलंका ने अनुमति देकर डिब्बाबंद भोजन को रोका है। पर भारत नया शिकार बन रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा निर्मित शोध संस्थान सरकारों को बता रहे हैं कि मिड-डे-मील में पका-पकाया खाना देने के बजाय डिब्बाबंद खाना देना बेहतर होगा। उनके मुताबिक, बच्चों में कुपोषण दूर करने के लिए दाल-चावल, हरी सब्जी के बजाय डिब्बाबंद भोजन देना चाहिए। रेलवे में भी डिब्बाबंद भोजन देने का प्रस्ताव आ चुका है।

टीएफ यानी ट्रॉपिकल फ्रेश फूड के तहत मूंगफली, मक्खन, चीनी और तेल के मिश्रण से बने सौ ग्राम खाद्यान्न में पांच सौ ग्राम कैलोरी होती है, जो आसानी से एक केले में उपलब्ध हो जाती है। मगर ये संस्थान चौदह-पंद्रह रुपये किलो गेहूं के बजाय दो सौ रुपये किलो का डिब्बाबंद भोजन का बाजार तैयार कर रहे हैं। अब वे किसानों से सस्ते दर पर अनाज, दाल और सब्जियां खरीदेंगे और उन्हें डिब्बाबंद कर ऊंचे दाम पर बेचकर कुपोषित बच्चों को सदा के लिए परंपरागत खाद्यान्न से अलग कर देंगे।

अपने देश में भोजन भौगोलिक स्थिति, स्थानीय संस्कृति और अर्थव्यवस्था पर निर्भर रहा है। कुछ सौ किलोमीटर की दूरी पर भोजन की जरूरतें बदल जाती हैं। ऐसे में बहुराष्ट्रीय कंपनियां पूरे देश के बच्चों के स्वास्थ्य का कैसे ख्याल रखेंगी? उनकी निगाह सिर्फ बाजार पर ही है। यह अकारण नहीं है कि जीएसटी के अंतर्गत डिब्बाबंद भोजन पर कर राहत मिलने वाली है।

अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल ऐंड प्रिवेंशन ने डिब्बाबंद भोजन में दोगुना नमक होने की जानकारी देते हुए स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव से आगाह किया है। अमेरिकी बाजारों में अगले पांच वर्षों में डिब्बाबंद खाने में पच्चीस प्रतिशत की कमी करने का अभियान चलाया जा रहा है। ऐसे में गरीब मुल्कों को डिब्बाबंद खाद्यान्न की ओर धकेला जाना चिंता का विषय है। भारत के कुपोषित बच्चों को सब्जी, दाल, रोटी-चावल की आवश्यकता है, न कि महंगे डिब्बाबंद भोजन की।

कुपोषित बच्चों को सब्जी, दाल, रोटी-चावल की जरूरत है, महंगे डिब्बाबंद भोजन की नहीं।

सुभाषचंद्र कुशवाहा

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