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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

मन की बात : क्या आपको लगता है कि हम स्वतंत्र भारत के सम्मानित शिक्षक पद पर कार्यरत हैं? अखबारी आदेश उस भय के साथ हम लोग मानने के लिए बाध्य है जो कभी गुलाम भारत में अंग्रेजी हुकूमत के आगे भय वश मानने को………

मन की बात : क्या आपको लगता है कि हम स्वतंत्र भारत के सम्मानित शिक्षक पद पर कार्यरत हैं? अखबारी आदेश उस भय के साथ हम लोग मानने के लिए बाध्य है जो कभी गुलाम भारत में अंग्रेजी हुकूमत के आगे भय वश मानने को………

"छुट्टियों में मिड-डे मील का बनना। जहाँ अभिभावक अपने काम में बाधा समझता है और बच्चा अपनी छुट्टियों की आजादी पर अतिक्रमण।"

माना कि अब हम शिक्षक नहीं सिर्फ बहुउद्देशीय कर्मचारी हैं । तो क्या कर्मचारी के लिए कोई सेवा की नियमावली व शर्तें नहीं होती है । जिसमें लिखा हो हमें क्या करना और कैसे करना।किसके आदेश से करना है।लिखित आदेश से करना या मौखिक आदेश से करना।जिस आदेश के तहत बीस मई को विद्यालय बन्द किये गये थे। क्या वह आदेश निरस्त किया गया। इक्कीस मई से आज तक कोई नया आदेश किसी शिक्षक को विभाग द्वारा जारी किया गया। सिवाय अखबारों के मध्यम से। क्या अन्य विभागों में भी ऐसे ही आदेश अखबारों के माध्यम से ही दिये जाते हैं । या अखबारी आदेश किसी दुर्घटना के समय मान्य है|

जैसा कि आज पेपर में तो घर-घर से भोजन के लिए बुलाने के साथ पढ़ाने का अखबारी आदेश उस भय के साथ हम लोग मानने के लिए बाध्य है जो कभी गुलाम भारत में अंग्रेजी हुकूमत के आगे भय वश मानने को तैयार हुआ करते थे। आज उसी भय के कारण वेतन काट दो, वेतन रोक दो, इसे निलम्बित कर दो आदि के कारण सब कुछ सहने और मानने को बाध्य हैं। तो क्या हमारे सम्मानित शिक्षक संघों के पदाधिकारी जो शासन से वार्ता के लिए अधिकृत होते हैं।आप अपनी सेवा शर्तों के अनुरूप बात करें।यदि कोई नही सुनता है तो लोकतंत्र में मान्यनीय न्यायालय जैसी व्यवस्था है । आप अच्छे प्रोफेशनल सलाहकारों से सलाह लें।आपके पास धन है कम पड़े तो और मांग करें। आधुनिक टेक्नोलॉजी से अपनी वेबसाइट बनायें।जहाँ अपना पूरा डिटेल सबके सामने रखें।

लेकिन आप अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझ कर हम सब को इसी भाषा में लिखित आदेश भी नहीं दिला सकते हैं।जिससे हमें लगे कि हम वास्तव में किसी नियम के तहत सेवा कर रहे हैं ।हम किसी काम को करने से नहीं डरते हैं।जो भी अन्य विभाग का अपने को कर्मठ समझता हो हमें उसके साथ काम कराके अनेक मौकों पर देखा जा चुका है जहाँ हम सदैव श्रेष्ठ साबित हुए। परन्तु डरते हैं तो सिर्फ सेवा शर्तों के प्रतिकूल और अव्यवहारिक आदेशों और नियमों से जिनको वास्तविक रूप में कर पाना मखौल बन जाये।जैसा कि छुट्टियों में मिड डे मील का बनना।जहाँ अभिभावक अपने काम में बाधा समझता है और बच्चा अपनी छुट्टियों की आजादी पर अतिक्रमण।

अब शिक्षक की स्थिति समाज के सामने हास्यास्पद और शासन के सामने काम चोर की बनी हुई है। ऊपर से इस समय विभाग भय बनाने के लिए पर्याप्त है। अभी कोई घटना विद्यालय में हो जाये। तो पल्ला झाड़ लेंगे। यह कहके की पेपर वालों ने हमारी बात को तोड़ मरोड़ कर लिखा है। हमने ऐसा कहाँ कहा।यदि कहा है तो दिखाओ आदेश। बस मास्टर जी का हो गया काम। अब त्रिशंकु बनकर लटकते रहो आकाश में। जय हो आजाद भारत की और शिक्षक राजनीति की।

            ~विमल कानपुर (देहात)

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