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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

प्राथमिक शिक्षा की पृष्ठभूमि को गर्त में धकेल रहा विदेशी मॉडल : रमेश ठाकुर-

प्राथमिक शिक्षा की पृष्ठभूमि को गर्त में धकेल रहा विदेशी मॉडल : रमेश ठाकुर-

प्राथमिक शिक्षा की बढ़ी मांग के अनुरूप अनुमानित बजट का जो प्रावधान किया जाता है, वह निश्चित ही इतना कम होता है कि राज्य सरकारें सदैव ही बजट की कमी बताते हुए अल्प वेतन अथवा ठेके पर शिक्षा कर्मियों की भर्ती करके प्राथमिक शिक्षण की खानापूरी करती हैं।

देश की आजादी के बाद राष्ट्रीय विकास के लिए जिस विदेशी मॉडल का अनुकरण किया गया, उसने हमारी मातृभाषा से जुड़ी प्राथमिक शिक्षा की पृष्ठभूमि को गर्त में धकेल दिया। आज मैकाले शिक्षा पद्धति से जुड़ी अंग्रेजी शिक्षा आत्मसम्मान का साधन बन गई। पहले तो राज्यों में केवल सरकारी स्कूल ही हुआ करते थे और उनमें पढ़कर निकले बच्चे प्रत्येक क्षेत्रों में सफलता का परचम लहराते थे। आज शिक्षा का अधिकार कानून को लेकर निजी स्कूल चौराहे पर खड़े हैं और संपन्न व निर्धन वर्ग के अभिभावक दुविधा में हैं।

भारतीय संसद ने इस कानून को पारित करके बेहतरीन कार्य तो किया, लेकिन लगता है कि इसके नियम-उपनियम गरीब बच्चों के भविष्य की अनदेखी करके बनाए गए हैं। अभिभावकों की भावनाओं और निजी स्कूलों के हित को भी नजरअंदाज किया गया है। अक्सर देखा जाता है कि अभावग्रस्त एवं दुर्बल श्रेणी के लोग मल्टीप्लेक्स, मॉल, संस्कृति, प्रतिष्ठित शोरूम व होटलों में हीनभावना व उपेक्षा की वजह से नहीं जा पाते हैं। वे उच्च वर्ग के सम्मुख असहज महसूस करते हैं। निर्धन अभिभावक अधिकांशत: अशिक्षित होते हैं। अमीर व गरीब वर्ग के बच्चों की मित्रता व संगत भी भिन्न होती है। ऐसे में इनके मध्य तालमेल कैसे होगा? यह निचले वर्ग के बच्चों के लिए ही अधिक घातक सिद्ध हो सकता है।

कई स्कूल शिक्षा के अधिकार के तहत गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए अलग से प्रबंध कर रहे हैं, जोकि गलत है। इस कानून के क्रियान्वयन में कड़वा सच तो यह है कि अमीर-निर्धन वर्गों में आर्थिक एवं सामाजिक फासले के चलते कई जनप्रतिनिधि, अधिकारी व धनी वर्ग बच्चों को एक साथ पढ़ाने के खिलाफ हैं। निजी स्कूलों की भी यही राय लगती है। उपेक्षित गरीब अभिभावक भी अपने बच्चों को प्रवेश दिलाने में कतरा रहे हैं। इन्हें अन्य भारी खर्चे, भेदभाव, अवहेलना की चिंता सता रही है।

हालांकि किसी भी स्कूल की स्थापना का मुख्य उद्देश्य बिना भेदभाव एवं जात-पात के समानता से शिक्षा देना होता है, लेकिन यह आज की कड़वी सच्चाई है कि शिक्षा व्यावसायिक हो गई है और बच्चों के बीच धन के आधार पर भेदभाव कर रही है। वास्तविक दुर्बल वर्ग तो इस अधिकार से अभी भी दूर ही रहेंगे। इन्हें तो यह भी नहीं पता कि शिक्षा का अधिकार होता क्या है? इस कानून में आय के पैमाने को एक लाख के करीब लाकर ही असल हकदार को हक दिया जा सकेगा। शिक्षा के अधिकार को जिस तरह से लागू किया जा रहा है, उससे लगता है कि सरकार शिक्षा में अपनी असफलता छिपाने और जिम्मेदारी से भागने के लिए निजी स्कूलों पर नकेल कसना चाहती है।

सच्चाई यह है कि अगर सरकार की प्रबल इच्छाशक्ति एवं सख्त नीतियां हों तो वह सरकारी स्कूलों के चरमराए ढांचे को सुधारकर निजी स्कूलों के स्तर पर ला सकती है। केंद्रीय विद्यालय एवं नवोदय विद्यालय इसके बेहतरीन उदाहरण हैं, जिनका परीक्षा परिणाम अनेक निजी स्कूलों से बेहतर रहता है। सरकारी शिक्षा के उत्थान के लिए पहला कदम यह होना चाहिए कि करोड़ों-अरबों की धनराशि के बजट का अधिकांश हिस्सा शिक्षा की गुणवत्ता और बच्चों में मुफ्त कॉपी-किताबों, ड्रेस, बैग वितरण पर खर्च हो, न कि इन्हें मुफ्तखोरी की आदत डालकर भोजन कराया जाए।

पिछले चार वर्षों में शिक्षा पर दोगुना बजट बढ़ा है। इस वर्ष भी केंद्रीय वित्त मंत्री ने अगले वित्त वर्ष के बजट में शिक्षा के लिए आवंटन में 21.7 फीसदी की बढ़ोतरी की है। इतनी धनराशि अगर सही तरह से खर्च होती तो निजी स्कूलों पर शिक्षा के अधिकार के तहत दबाव डालने की नौबत ही नहीं आती। जिस तरह से सरकार ने शिक्षा का अधिकार दिया है, उससे कोई खास लाभ नहीं होगा। अब सरकार को यह भी समीक्षा करनी चाहिए कि इस अधिकार को कितने निजी स्कूलों ने किस-किस तरह से और कितना लागू किया है। किंतु मूलभूत आवश्यकता यह है कि सरकारी स्कूलों को सुधारा जाए। एक उपाय यह किया जा सकता है कि सभी अधिकारियों के बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाने का कानून बनाया जाए ताकि सरकारी स्कूलों में भी आधुनिक सुविधाएं और शैक्षणिक गुणवत्ता आए|

   खबर साभार/लेख : डीएनए/रमेश ठाकुर

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