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प्राथमिक शिक्षा में शिक्षक का महत्व : बालक में दिनचर्या व उसके क्रिया-कलापों में निरन्तरता लाना -

प्राथमिक शिक्षा में शिक्षक का महत्व : बालक में दिनचर्या व उसके क्रिया-कलापों में निरन्तरता लाना -

शिक्षा का स्तर कोई भी हो शिक्षक के बिना उसके अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। प्राथमिक शिक्षा में शिक्षक का महत्व अत्यधिक हैं। माता-पिता के बाद बालक सीधे प्राथमिक शिक्षक के सम्पर्क में ही आता हैं। ऐसे में घर परिवार की परिस्थितियों से विद्यालय को समांजस्य बिठाना पड़ता है जोकि अत्यन्त कठिन कार्य है। घरेलू वातावरण के लाभों को उठाते हुए बुराइयों पर अंकुश लगाते हुए बालक में अध्ययन के प्रति रुचि जाग्रत करना, उसके क्रिया-कलापों में निरन्तरता लाना, दिनचर्या को व्यवस्थित व नियमित करवाना और विद्यालय हेतु आकर्षण उत्पन्न करना महान दायित्व होते हैं। जो कोई बालक इनमें पिछड़ जाता है उसका शिक्षा के लिए किया गया श्रम व्यर्थ हो जाता है। धीरे-धीरे माता-पिता की मनःस्थिति भी वैसी ही हो जाती है। वह बच्चों को समझाना छोड़ देते है।

इधर बच्चे अनेक दुर्व्यसनों का आश्रय विद्यालय समय में ही लेने लगते हैं। तरह-तरह की समाज विरोधी गतिविधियों में सहभागी बनने लगते हैं।

यक्ष प्रश्न यही उठता है कि किस तरह इनको बिगड़ैल न होने दिया जाये ? इन पर प्राथमिक स्तर पर ही नियन्त्रण रखा जाये। इनकी स्थिति को आवश्यकतानुसार, समझकर, सुधाकर मार्गदर्शन दिया जाता रहे। सुधारों का सबसे बड़ा दायित्व शिक्षक पर ही आता है। उसे न केवल इस तरह के दायित्वों का निर्वहन करना पड़ता हैं बल्कि अनेक प्रशासनिक-परिभ्रमण, सामुदायिक-गणना आदि कार्यों को भी करना पड़ता हैं। कभी-कभी विद्यालय में पर्याप्त अध्यापक-अध्यापिकाओं के न होने अथवा एकाकी हो जाने से समस्या और जटिल हो जाती हैं। शिक्षक केवल कक्षाओं कों घेर ही पाता है। अकेले पांच-पांच कक्षाओं को देखना, उनके कार्य का निरीक्षण करना व गृह कार्य देना, पाठ्यक्रम का दबाव आदि ऐसे पहलू हैं, जिनके चलते अकेला अध्यापक विद्यालय को केवल खोल तो सकता हैं, अच्छी तरह चला नहीं सकता और न ही बालकों में किसी प्रकार का सुधार ला सकता हैं।

इसके अतिरिक्त विद्यालय का मुख्यमार्ग के समीप, ध्वनि विस्तारक यंत्रों के अधिकाधिक प्रभाव क्षेत्र में होने, भीड़-भीड़ वाले स्थानों आदि में स्थित होने से शिक्षक का ध्यान तो बंटता ही है, बालक भी रुचि नही ले पाते हैं। उनकी एकाग्रता, बाहरी गतिविधियों से सदैव भंग होती रहती हैं। शरीर भले ही विद्यालय परिसर में हो, मन-मस्तिष्क बाहर सड़क, बाजार, मेलें आदि में ही दौड़ लगाता रहता हैं। यहीं नहीं प्राथमिक विद्यालय में क्षेत्र के लोगों का हस्तक्षेप अधिक रहता हैं। विद्यालयों में चलती कक्षाओं में बालकों के सामने रोज ही उनकी शिक्षको से बातचीत, तो कभी नोंक-झोंक होती रहती है। अतः प्राथमिक शिक्षक अपना प्रभाव बालकों पर नहीं छोड़ पाते हैं और न ही बालक प्रभावित होते हैं। इसी तरह अतिरिक्त कार्य व बोंझ से दबे शिक्षक भी बालकों को अधिक समय न दे पाते हैं।

प्राथमिक शिक्षा जहाँ सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ हैं, वहीं शिक्षक सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक हैं। शिक्षा के विविध वर्गों में यदि बालक पर किसी का सबसे अधिक प्रभाव होता हैं तो वह प्राथमिक शिक्षक ही होता है। बालक अपनी प्रथम शिक्षा माता के बाद सर्वाधिक रुप से प्राथमिक शिक्षा के अध्यापक-अध्यापिका से ही प्राप्त करता हैं। बालकों को जीवन के लिए पूर्ण रुप से सजानें-संवारनें , ठोंक- पीटकर तैयार करने का पूर्ण दायित्व इसी शिक्षक पर होता है। आज कुछ लोग भले ही प्राथमिक शिक्षक के दायित्व कार्यों को कम करके ऑक रहे हों, लेकिन उनका महत्व जैसा पहले था उससे कहीं अधिक आज हैं।

क्योंकि प्राचीन काल के सीमित विदेशी आक्रमणों की अपेक्षा आज उस पर उसकी प्रगति को रोकने के लिए समाज के सभी क्ष्ेात्रो से आक्रमण हो रहे हैं। आज उसके सामने पास-पड़ोस, मित्र-मंडली, वातावरण, परिवार ही नहीं दृश्य-श्रव्य मीडिया के भी अनेक तरह के आक्रमण हो रहें हैं। जो कभी-कभी कम आयु में ही उसे बड़ा बनाने का प्रयास करते हैं, अथवा वे स्वयं ही इनसे प्रभावित होकर इनके जैसा बनने का प्रयास करते हैं। आवश्यक है कि कोमल बुद्धि के बालक अनजाने ही शक्तिमान, सुपरमैन या कामिक्स के काल्पनिक कृत्यों में न फॅसे, बल्कि आयु वर्ग समाज देश काल परिस्थितियों के आधार पर समुचित विकास करें।

ऐसी स्थिति में इसका दायित्व यदि कोई सर्वाधिक निष्ठा- विश्वास व ईमानदारी से निभा रहा हैं तो वह प्राथमिक शिक्षक ही है। उसके पास अपने जीवन व कार्यों से जितना अधिक अनुभव होता है उतना ही वह कार्य में दक्ष होता है, उसका प्रभाव बालकों पर स्पष्टतः देखा जा सकता है। उसका कार्य एक कुशल कुम्हार की भांति है जो कच्चे घड़े को अन्दर से हाथ लगाकर बाहर से ठोंक-पीटकर मजबूत बनाता है और आग में पकने के लिए छोड़ देता है। ठीक वैसे ही प्राथमिक शिक्षक घड़े की भांति पकने के लिए बालक को अगली कक्षाओं में भेज देता है। महत्वपूर्ण पकाना नहीं, बल्कि उसको निश्चित आकार-स्वरूप प्रदान करना है। प्रारम्भ में जब बालक विद्यालय में आता है, उसकी दुनिया ही अलग होती है। रोना-पीटना, चीखकर चिल्लाना हर बालक को आता है। कलम पकड़वाना, लिखवाना, जरुरत पड़ने पर डांटना, फिर पुचकारना, गीत गाना, स्वंय हँसना, उसको हंसाना, उसके लिए विद्यालय में घर जैसा आकर्षण पैदा करना, उसको नियमित विद्यालय लाना, विद्यालय के अनुसार ढालना, उठना-बैठना, बोलना, चलना, शिष्टाचार सिखाना, आदि कार्यों को प्राथमिक शिक्षक ही कराता है।

प्राथमिक शिक्षक के कार्यों को यदि पेड़ के कुशल निर्माता माली की तरह माना जाये तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। बगीचे में खड़े आकर्षक पेड़ को यदि उसका कुशल निर्माता माली पौधे को समय-समय पर कांटे-छांटे न, उसकी निराई-गुड़ाई भी न करे और न ही समय-समय पर पानी डाले तो पौधे के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। ठीक वैसा ही शिक्षक बालक को आकर्षक रूप देकर, डांटकर, पीटकर तो कभी पुचकार कर उसके साथ हंसते-खेलते हुए सही रास्ते पर ले जाता है।

हालांकि प्राथमिक शिक्षा में कुछ शिक्षक अपने दायित्वों का निर्वहन पूर्ण निष्ठा व ईमानदारी से नहीं कर रहे हैं। विद्यालय को टाइमपास अथवा घरेलू कार्यों को निपटाने का स्थान समझ रहे हैं, लेकिन सभी इस तरह के नहीं हैं। अधिसंख्य अपने दायित्वों का निर्वहन देश-समाज की आवश्यकताओं के अनुसार कर रहे हैं। कहीं-कहीं तो बाहरी हस्तक्षेप के बाद भी बालकों का समग्र विकास करने में सफल हो रहे हैं । उनका यदि कोई उचित प्रभाव बालकों के सर्वांगीण विकास पर पड़ता दिखता है तो वह डाल रहे हैं। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, संचार, उद्योग,व्यापार आदि प्रत्येक क्षेत्र में आये दिन हो रहे विकास के मध्य प्राथमिक शिक्षकों के दायित्वों का क्षेत्र भी व्यापक होता जा रहा है। उनको इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए अपने दायित्वों का निर्वहन करते रहना पड़ता है। इसलिए सरकारों को भी समयानुसार शिक्षण-प्रशिक्षण के साधन-सुविधाओं में परिवर्तन-परिष्कार करते रहना चाहिए और जहां तक सम्भव हो अनावश्यक हस्तक्षेप, प्रभाव से सरकारों व उनके अंगों को बचना चाहिए। समाज को भी मात्र वृŸिाक सेवक न समझ कर बालकों का निर्माता, समाजोद्वारक, कल के भारत निर्माता समझना चाहिए। यदि अभिभावक बालक-बालिकाओं के विकास में शिक्षक का सहयोग नहीं कर रहे है। समय नहीं दे पा रहे हैं तो न सही, कम से म असहयोग तो न करें और न ही शिक्षक की गतिविधियों को हतोत्साहित करना किसी भी रूप में अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न समझें।

प्राथमिक शिक्षा मानव के सम्पूर्ण विकास का आधार है। जिसको निभाने का पूर्ण दायित्व अकेले प्राथमिक शिक्षक का नहीं है। शिक्षक के साथ-साथ बालक के माता-पिता, घर-परिवार के सदस्यों, समाज का भी है कि वह ऐसी परिस्थितियां शिक्षक को दे, कि जिससे शिक्षक स्वस्थ मन से बालकों के विकास के प्रति अपना कर्तव्य निभा सके। शिक्षक प्रेरणा स्रोत है। बालक को प्रत्येक परिस्थिति, वातावरण में आगे ले जाना चाहता है। लेकिन वह उसमें प्राण शक्ति भरने के लिए उसके माता-पिता पर ही निर्भर है। माता-पिता व परिवार के अन्य सदस्य जब तक पर्याप्त समय, लाड़-प्यार देते हैं, उनकी समस्याओं, जिज्ञासाओं को समझकर शान्त करने का प्रयास करते हैं तो शिक्षकों को बालकों के लिए प्रेरणा शक्ति बनने में कोई कठिनाई नहीं आती, बल्कि वह अपने दायित्वों केा निर्वहन करने में गौरवान्वित भी अनुभव करते हैं।

अन्त में यही कहा जा सकता है कि शिक्षा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्राथमिक शिक्षा है उस शिक्षा में प्राथमिक शिक्षक का दायित्व सबसे अधिक है। जिसको निभाने के लिए वह प्रत्येक क्षण तत्पर है, लेकिन उसकी प्रेरणा शक्ति साकार रूप लेकर सार्थक परिणाम तभी दे सकती है। जब घर-परिवार व समाज बालकों में प्राण शक्ति भरने का दायित्व पूर्ण निष्ठा व ईमानदारी से निभाये। यदि उसको दीपक मानें तो स्वंय दीपक में तेल डालें।

साभार : सृजनगाथा

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