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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

परिषदीय विद्यालयों के बच्चों को यूनीफॉर्म का समय से मिल पाना इस बार भी टेढ़ी खीर -

परिषदीय विद्यालयों के बच्चों को यूनीफॉर्म का समय से मिल पाना इस बार भी टेढ़ी खीर -

सरकारी प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए नई यूनीफॉर्म का समय से मिल पाना इस बार भी टेढ़ी खीर लग रहा है। शिक्षा सत्र का एक महीना बीतने के बाद भी यूनीफॉर्म वितरण का शासनादेश तक नहीं हो सका है। अब शासनादेश हो भी जाए तो पिछले वषों का अनुभव देखते हुए यह संभव नहीं लगता कि यूनीफॉर्म जल्दी मिल पाएगी। सर्व शिक्षा अभियान के तहत परिषदीय स्कूलों के कक्षा आठ तक के बच्चों को हर साल दो जोड़ी यूनिफॉर्म निशुल्क उपलब्ध कराई जाती है, लेकिन हर साल यह व्यवस्था सरकारी सुस्ती का शिकार हो जाती है। सरकारी कार्यशैली तो जिम्मेदार है ही, ड्रेस के लिए निर्धारित बजट और प्रक्रिया भी कम अवरोधपूर्ण नहीं है। दो जोड़ी निशुल्क यूनीफॉर्म के लिए महज चार सौ रुपये का बजट निर्धारित है।

इस बजट में 65 फीसद केंद्र और 35 फीसद राज्य सरकार का अंशदान होता है। इस बजट के लिहाज से हिसाब लगायें तो कपड़ा और सिलाई सहित सौ रुपये में एक पैंट और इतने में ही एक शर्ट देनी होती है। सहज ही कल्पना की जा सकती है कि इतनी रकम में यह यूनीफॉर्म कैसे तैयार होती होगी। दूसरा अवरोध वितरण की प्रक्रिया है। खरीदारी और वितरण की जिम्मेदारी विद्यालय प्रबंध समितियों पर है, लेकिन वह इतने बजट में यह जिम्मेदारी पूरी करने में कतराती हैं। यही वजह है कि पूरा सत्र शासनादेश जारी होने, बजट का इंतजार करने, सस्ता कपड़ा और सस्ता दर्जी तलाशने में गुजर जाता है। पिछले शिक्षा सत्र में यही हुआ। जो ड्रेस सत्र शुरू होने के साथ मिल जानी चाहिए, वह कई स्कूलों में इस साल जनवरी तक मिल पायी। जहां गुणवत्ता देखी गई वहां एक जोड़ी ड्रेस ही बमुश्किल उपलब्ध हुई और जहां दो जोड़ी का आंकड़ा पूरा किया गया वहां गुणवत्ता किनारे रखनी पड़ी। 

इस बार भी यही कहानी न दोहरायी जाए, इसके लिए पिछले अनुभव से सीख लेकर बजट की राशि और खरीद प्रक्रिया को तार्किक बनाने की जरूरत है। कुछ नया सोचने की आवश्यकता है। एक सुझाव है कि यूनीफॉर्म तैयार कराने की जिम्मेदारी में स्वयं सहायता समूहों को जोड़ लिया जाए तो इससे अतिरिक्त रोजगार का सृजन हो सकता है और समय पर गुणवत्तापरक परिधान मिलना भी संभव हो सकता है। अन्य उपाय भी हो सकते हैं लेकिन इसके लिए सरकारी सहायता को खैरात की तरह बांटने वाली मानसिकता से ऊपर उठकर सोचना होगा।

साभार : दैनिक जागरण सम्पादकीय

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