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भाषा का संगम : मनपंसद भाषा में मिले प्राथमिक शिक्षा -

मनपसंद भाषा में मिले प्राथमिक शिक्षा

गुरूवार, 15 मई, 2014

बच्चों की प्राथमिक शिक्षा की भाषा क्या हो, देश में इस पर सवाल उठते रहे हैं। ज्यादातर राज्य सरकारें चाहती हैं कि बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में दी जाए। मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा के प्रति यह आग्रह गलत भी नहीं, लेकिन किसी पर जबरन भाषा थोपना सही नहीं। जिस देश में कई धर्म, भाषा और संस्कृतियों को मानने वाले एक साथ निवास करते हों, वहां इस तरह का कोई भी फैसला अलोकतांत्रिक ही कहा जाएगा। हमारी सबसे बड़ी अदालत ने भी हाल में अपने एक फैसले में इस बात को माना है कि सरकार प्राथमिक शिक्षा देने के लिए भाषाई अल्पसंख्यकों (लिंग्विस्टिक माइनरिटी) पर मातृभाषा नहीं थोप सकती। चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा की अगुआई वाली वाली पांच सदस्यों वाली संविधान पीठ ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि सरकार को भाषाई अल्पसंख्यकों को प्राथमिक शिक्षा के लिए अनिवार्य तौर पर क्षेत्रीय भाषा लागू करने के लिए बाध्य करने का अधिकार नहीं है। अलबत्ता अदालत ने इस बात को भी स्वीकार किया कि तमाम विशेषज्ञ इस बात पर एक राय हैं कि प्राथमिक स्कूलों में बच्चे तभी बेहतर ढंग से शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, यदि पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा हो। गौरतलब है कि संविधान पीठ के सामने यह मसला कर्नाटक सरकार के 1994 के दो आदेशों की वजह से पहुंचा था। इन आदेशों में उस वक्त तत्कालीन कर्नाटक सरकार ने सरकारी और निजी दोनों तरह के स्कूलों में कक्षा एक से चार तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा देना अनिवार्य कर दिया था। सरकार के इन आदेशों की वैधानिकता को निजी स्कूलों ने चुनौती दी। निजी स्कूल अपनी यह लड़ाई हाई कोर्ट में जीत भी गए। जुलाई 2008 में कर्नाटक हाईकोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए सरकार से कहा था कि भाषा माध्यम की नीति निजी स्कूलों पर नहीं थोपी जा सकती। अदालत के इस आदेश के खिलाफ कर्नाटक सरकार, सुप्रीम कोर्ट में चली गई। बहरहाल पिछले साल जुलाई में दो न्यायधीशों की पीठ ने इस मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि इस संवेदनशील मसले पर संविधान पीठ विचार करेगी कि क्या सरकार प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में ही शिक्षा देना अनिवार्य कर सकती है, क्योंकि बच्चों के विकास में इसका दूरगामी महत्व है। जाहिर है संविधान पीठ का हालिया फैसला इसी संदर्भ में आया है। संविधान पीठ ने इस मामले में गंभीरता से विचार करते हुए कर्नाटक सरकार के 1994 के उस आदेश को असंवैधानिक ठहरा दिया, जिसमें राज्य के प्राथमिक स्कूलों में कन्नड़ में शिक्षा देने की बात कही गई थी। पीठ ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत देश के सभी नागरिकों को भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हासिल है। इस अनुच्छेद के तहत बच्चे को अपनी पसंद की भाषा में शिक्षा पाने की स्वतंत्रता भी शामिल है। यानी बच्चे या उसकी तरफ से उसके अभिभावक को शिक्षा का माध्यम चुनने की आजादी है। इस पहलू पर और भी ज्यादा अपनी राय स्पष्ट करते हुए संविधान पीठ ने कहा कि अगर सरकार अनिच्छुक विद्यार्थियों पर मातृभाषा में पढ़ाई करने का दबाव डालती है, तो इससे उनकी उत्पादकता पर असर पड़ सकता है, वे अक्षम बन सकते हैं। अदालत की यह दलील सही है। देश के कई राज्यों में बड़े पैमाने पर भाषाई अल्पसंख्यक निवास करते हैं। जिनकी अपनी एक अलग भाषा और संस्कृति है। यही नहीं यह भाषाई अल्पसंख्यक अपनी भाषा में ही अध्ययन करना ज्यादा सहज महसूस करते हैं। मसलन, शुरू से उर्दू भाषा-भाषी परिवार में पैदा हुए बच्चे को उर्दू भाषा में ही शुरुआती तालीम लेने में ज्यादा सहूलियत हासिल होगी, बजाए किसी राज्य की क्षेत्रीय भाषा के। इसी तरह बहुत सारे परिवारों में बच्चोें को शुरू से ही अंग्रेजी भाषा का माहौल मिलता है। परिवार में मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा से इतर अंग्रेजी को ही वरीयता दी जाती है। जाहिर है, बच्चों के अभिभावक आगे चलकर उनकी शिक्षा का माध्यम भी अंग्रेजी चुनना चाहते हैं। अंग्रेजी को वे इसलिए भी वरीयता देते हैं, क्योंकि उनकी नजर में यही वह भाषा है जो उनके बच्चों को रोजगार के कई नए अवसर खोलेगी। भूमंडलीकरण के इस दौर में कई अभिवाभक अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजना चाहते हैं। जाहिर है, विदेश में बच्चों की शिक्षा अंग्रेजी में ही होगी। यदि बच्चे शुरू से ही अंग्रेजी भाषा में महारत हासिल कर लेंगे, तो उनकी आगे की शिक्षा सुगम हो जाएगी। यही वजह है कि अदालत ने भी अपने फैसले में इन सवालों के मद्देनजर कहा कि अगर हम बच्चों पर जबरन मातृभाषा या राज्य की क्षेत्रीय भाषा थोपेंगे तो फिर हम दुनिया में कैसे टिके रहेंगे। अगर कर्नाटक सरकार की यह दलील मान भी ली जाए कि बच्चों के संपूर्ण बौद्धिक और सांस्कृतिक विकास के लिए मातृभाषा सीखनी जरूरी है, तो सवाल है कि इसकी सीमा केवल स्थानीय संस्कृति क्यों हो! भाषाई अल्पसंख्यकों की संस्कृति और भाषा को नजरअंदाज करना, क्या लोकतांत्रिक कदम होगा? जिस परिवेश से बच्चा आता है, यदि उस परिवेश और भाषा से उसे जबरन दूर कर दिया जाएगा, तो उसकी संस्कृति कैसे जिंदा रहेगी ? फिर अपनी भाषा में शिक्षा हासिल करना बच्चे का मौलिक अधिकार भी है। मौलिक अधिकारों से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 19 (भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता), 29 (अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण) और अनुच्छेद 30 (संस्थाएं स्थापित करने के अल्पसंख्यकों के अधिकारों) भाषाई अल्पसंख्यकों को संवैधानिक संरक्षण भी प्रदान करते हैं। फिर भी देश में समय-समय पर इस तरह के विवाद पैदा होते रहते हैं। विवाद के कारण, ज्यादातर राजनीतिक होते हैं। सत्ताधारी पार्टी, भाषा के मामले में भी राजनीति करने से नहीं चूकती। बच्चों की प्राथमिक शिक्षा की भाषा को, यह पार्टिया अपनी राजनीति के हिसाब से तय करती हैं। शिक्षा में भाषा संबंधी यह विवाद पैदा ही नहीं होता, यदि देश भर में शुरू से ही त्रि-भाषा फॉमरूला अनिवार्य कर दिया जाता। देष में धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यकों के साथ भेद-भाव दूर करने के रास्तों की तलाश के वास्ते बनाए गए रंगनाथ मिश्र आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात को माना था कि अल्पसंख्यकों के हितों के लिए शिक्षा में त्रि- भाषा फॉमरूला अनिवार्य किया जाना बेहद जरूरी है। जिसके तहत सभी राज्यों में मातृभाषा के साथ-साथ उर्दू, अंग्रेजी एवं पंजाबी की तालीम लाजमी हो। संविधान पीठ के हालिया फैसले से आगे, रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट यहां तक कहती है कि राज्यों को अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में वित्तीय व दीगर संसाधनों समेत सभी सुविधाएं मुहैया कराना चाहिए। देश में त्रि-भाषा फामरूला लागू करने की यह बात कई बार उठ चुकी है। आजाद हिंदुस्तान में हमारे हुक्मरानों ने उर्दू जुबान जिंदा रखने और इसकी तरक्की के लिए साल 1949 में सैकेंडरी शिक्षा में भाषायी (तीन भाषा) फामरूला बनाया था। जिसके तहत एक मातृभाषा, एक आधुनिक भाषा और एक विदेशी भाषा का प्रस्ताव था। लेकिन इस फामरूले पर देश में आज तक कहीं भी सही तरीके से अमल नहीं हुआ। रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट को आए सात साल हो गए हैं, लेकिन इसकी सिफारिशों पर सरकार ने अब तक कोई अमल नहीं नहीं किया है। त्रि-भाषा फॉमरूला के प्रति सरकार का नकारात्मक और उदासीन रवैया जस का तस बना हुआ है। संविधान पीठ के हालिया फैसले के बाद, उम्मीद है कि सरकार अब इस दिशा में गंभीरता से विचार करेगी।

साभार : राष्ट्रीय सहारा

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